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कुवलयमाला-कथा
के अन्दर छोड़ दिया। तब मैंने सिंहासनासीन भगवान् को प्रणाम किया। फिर वहाँ किसी नृपति ने प्रस्ताव पाकर पूछा- 'यह कौन है?' तब भगवान् ने बताना आरम्भ किया- "जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र में मध्यम खण्ड में अरुणाभ नाम का एक नगर है। वहाँ रत्नगजेन्द्र नामक राजा है । उनका यह कुमार कामगजेन्द्र पुत्र है। ये दोनों देव इसको स्त्रीलम्पट मानकर और स्त्री का वेश बनाकर अपहृत करके वैताढ्य पर्वत की कन्दरा में ले आये । वहाँ अलीक भवन में विद्याधर
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बालिका तुम्हारे वियोग से मर गयी, यह कहकर उसको चिता में रखकर उस स्त्री के पीछे विलाप करती हुई स्वयं भी प्रविष्ट हो गयी और जल गयी । वह भी माया है विद्याधरमिथुनता । प्रबुद्ध हुआ वापी पर आया । वहाँ वापी के बहाने से जलकान्तयान से यहाँ इन दोनों ने लाकर इसको मेरे पास सम्यक्त्व लाभ के लिये छोड़ दिया है ।" राजा ने पूछा -" भगवन् ! इन दोनों का इसको लाने में क्या कारण है?" भगवान् ने कहा- " पञ्चजनों ने पूर्वजन्म में सङ्केत किया था कि एक को परस्पर सम्यक्त्व देना चाहिये, प्रथम मोहदत्त उससे स्वर्गी उससे पृथ्वीसार उससे स्वर्गी फिर उससे चरम शरीरधारी कामगजेन्द्र उत्पन्न हुआ। तो तुम जागो मोहित मत होओ, यथाशक्ति विरति को ग्रहण करो" यह स्वामी ने कहा। तत्पश्चात् हे प्रिये! राजा ने पुन: पूछा - "स्वामिन्! यह लघु कैसे है? और हम इससे उच्च कैसे हैं?" भगवान् बोले- "यह अपूर्व महाविदेह क्षेत्र है, यहाँ परम शोभन काल है और यह शाश्वत है, यहाँ देहधारी महादेही होते हैं । वहाँ फिर भरतक्षेत्र है, काल शोभन नहीं होता, वह अशाश्वत होता है । अत: लघु जन होते हैं।" फिर राजा ने पूछा - " ये दोनों देव कौन हैं?" जिन ने कहा - " जिन पाँचों ने संकेत किया था उनमें ये दो देव हैं। "
ऐसा भगवान् के कहने पर ज्योंही मैंने मस्तक ऊँचा किया त्योंही मैं यहाँ ही कटक में अपने आपको देख रहा हूँ, यही शयन है, यह आप देवी हो । " उसने कहा- " आप देव जो बता रहे हैं यह सच ही है, पर मैं कुछ निवेदन करती हूँ यह वृत्त आपने कहा, यहाँ अरुणोदय भी हो गया, आपने बड़ा वृत्त बताया, परन्तु यह काल तो अल्प है।" कुमार ने कहा- "क्योंकि मन से देवों का, वाणी से पार्थिवों का जो मैंने भगवान् श्री सीमन्धर स्वामी को देखा, वे तो आज भी मेरे हृदय के आगे ही विद्यमान हैं । अथवा इसमें विचार करने से क्या ? भगवान् श्री महावीर स्वामी इस प्रदेश में समवसरण किये हुए सुनायी चतुर्थ प्रस्ता