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________________ [158] कुवलयमाला-कथा कुमार- तुम्हारे काका, अयोध्या के राजा दृढधर्मा का कोई पुत्र है या नहीं? पल्लीपति ने लम्बी साँस लेकर कहा- "एक बार किसी मुसाफिर के मुँह से मैंने सुना था कि राजा दृढधर्मा को राजलक्ष्मी के प्रसाद से पुत्र की प्राप्ति हुई। परन्तु पीछे उसका क्या हुआ सो मुझे मालूम नहीं।" कुमार- राजलक्ष्मी के प्रसाद से उत्पन्न होने वाला राजा दृढधर्मा का कुवलयचन्द्र नामक पुत्र मैं ही हूँ। ___कुमार की बात सुनकर "अहो! तू ही मेरा भाई कुवलयचन्द्र है? ऐसा कहते-कहते उसकी दोनों आँखों में आँसुओं की बून्दें उत्पन्न हो गईं। फिर उस दर्पफलिक ने कुमार से पूछा-"कुमार! उष्ण ऋतु के बीतने पर मेघ की जल-धाराओं से पृथ्वीतल को भरने वाले, सब जीवों को सुख देने वाले, राजहंसों का प्रवास कराने वाले, वियोगी युवकों के मन रूपी वनभूमि में दावाग्नि के समान, कमलों के समस्त वनों को शान्ति देने वाले तथा जिसमें मत्त मयूर केका-रव कर रहे हैं, कलिकाल के समान साँपों का समुदाय संचार कर रहा है, बुरे राजा की तरह अच्छे मार्ग का नाश हो जाता है, सेवार तथा जटिल जाल वाले मार्ग में लगे हुए करोड़ों काँटों के कारण चलना-फिरना कठिन है, और पानी के पूर के प्रवाह से सैकड़ों गड्ढे पड़ गये हैं, तथा जिस काल में प्रचण्ड पवन से उछाली हुई आकाश को अड़ने वाली तरङ्गों से युक्त नदियों के समूह को पार करना कठिन है, ऐसे समय अपने स्थान को छोड़कर मुसाफिरी के लिए क्यों निकले हो?" कुमार ने अपना सारा वृत्तान्त सुनाया और अन्त में कहा-"अब मुझे कुवलयमाला को बोध देने के लिए विजयापुरी जाना होगा।" इसके बाद उस पल्ली में कुमार ने तीन दिन आनन्द से बिताकर पल्लीपति से कहा-"आपकी आज्ञा हो तो अब मैं यहाँ से रवाना होऊँ?" ____ पल्लीपति- यदि तुम्हें अवश्य ही जाना है तो मैं दूसरा काम छोड़कर सब सेना सहित तुम्हारी कुशलता के लिए विजयापुरी तक चलूँ, क्योंकि तुम अकेले हो और रास्ता जानते नहीं हो। तृतीय प्रस्ताव
SR No.022701
Book TitleKuvalaymala Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVinaysagar, Narayan Shastri
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2013
Total Pages234
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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