________________
कुवलयमाला-कथा
[105] इधर साधु स्वाध्याय में सावधान होकर आवश्यक क्रिया करके थोड़ी देर नींद लेकर प्रात:काल की क्रियाओं में लग गये।
उस समय आकाश अरुणोदय की आभा से लाल-लाल हो गया। सूर्य ने धीरे-धीरे पूर्व पर्वत के शिखर का सहारा लिया। वन्दी जनों के मुख से वर्णन किये हुए प्रात:काल को जान राजा शय्या से उठा। उसके दोनों नेत्र निद्रा के कारण माते और लाल हो रहे थे। उठकर उसने आवश्यक क्रिया की, सुबह के जरूरी काम निवटाये और चारदन्त वाले हाथी पर सवार होकर वासव मन्त्री के साथ चतुरङ्ग सेना सहित शक्रेन्द्र की भाँति उद्यान में आया। वहाँ भगवान् धर्मनन्दन गुरु तथा दूसरे साधुओं को वन्दना करके राजा बोला-"पूज्य गुरु! मैं पुत्र, मित्र, कलत्र की सर्वथा ममता त्याग करने में असमर्थ हूँ, लेकिन गृहस्थी में रहने वाले को ही ऐसा कुछ दीजिये, जो संसार रूपी सागर में नाव के समान हो।"
__ भगवान् धर्मनन्दन-“यदि ऐसा है तो सम्यक्त्व मूल पाँच अणुव्रत, तीन गुण व्रत और चार शिक्षा व्रत बारह प्रकार के इस गृहस्थ-धर्म का पालन करो।"
राजा-"भगवन् ! मैं अपने पहले जन्म का कुछ भी हाल नहीं जानता, उसे जानने की इच्छा है।"
भगवान् धर्मनन्दन "यह राज्य ही तुम्हें बताएगा। सूत्र पौरसी का समय हो गया है और आज ही हमें विहार करना है।"
राजा ने यह बात सुन गुरु महाराज के चरणों में वन्दना की और वासव मन्त्री के साथ अपने धवल गृह चला गया। भगवान् भी सूत्र पौरसी करके उत्तम स्थानों में विहार करने के लिए रवाना हुए। चण्डसोम वगैरह पाँचों साधु थोड़े ही समय में शास्त्र तथा उसके रहस्य का अभ्यास करके दोनों प्रकार की शिक्षाओं में कुशल हो गये और एक ही दिन गुरु के पास दीक्षित होने वाले उनमें आपस में खूब धर्म राग बढ़ने लगा।
एक समय की बात है। पाँचों साधु आपस में बातचीत कर रहे थे
"अहा! जिनेश्वर का कहा हुआ धर्म बड़ी कठिनाई से मिलता है। वह धर्म दूसरे जन्म में किस प्रकार प्राप्त हो सकता है? इसके लिए हमें कुछ उपाय
तृतीय प्रस्ताव