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कुवलयमाला-कथा
[103] कराई है। तुमने तो बिना पहचाने भी मुझे-लड़के की तरह प्यार किया है, पर मैं बड़ा कृतघ्नी हूँ कि तुम्हें चाकरी के काम में लगा दिया।"
माता बोली- “पुत्र! दुर्भिक्ष के कारण जब मैं तुम्हारा पालन-पोषण करने में असमर्थ हो गयी तो जैसे कोयल अपने बच्चे का त्याग कर देती है, वैसे ही मुझ पापिनी ने रास्ते में तुम्हें त्याग दिया था। मुझ कुमाता को धिक्कार है। लेकिन कोयल के बच्चे की तरह तूने पक्ष (न्यायपक्ष और कोयल के अर्थ में पँख) पाकर अपने भाग्य के बल से, अमृत के समान वचनों से लोगों को प्रसन्न करता हुआ, श्रेष्ठ लक्ष्मी को पाया है, यह देख कर मुझे अत्यन्त आनन्द हुआ है।"
इसके अनन्तर विनीत विनयपूर्वक अपने वृद्ध पिता और भाई के चरणों में गिरा। उन्होंने भी अपनी छाती से लगाकर आनन्दित किया। सरल बुद्धि वाले विनीत मन्त्री ने राज्य भर में उनका आदर सत्कार कराया और अपने घर में सर्वस्व का स्वामी बनाया। विनीत दूसरे नौकर चाकरों का भी यथा योग्य आदर सत्कार करता, मीठे वचन बोलता और अच्छे-अच्छे काम करता हुआ सब जगह प्रसिद्ध हो गया। वह श्री जिनेश्वर भगवान् के चरण रूपी कमलों में भौरे के समान था, इसलिए उसके मन में क्रूरता को तो स्थान ही नहीं मिलता था, उसके शम (शान्ति) रूपी गरुड़ से शोभित मन में कषाय रूपी साँप प्राणों के डर से घुस ही नहीं सकते थे। उसे सदा राज्य लक्ष्मी की चिन्ता लगी रहती थी। वह यद्यपि गृहस्थाश्रम में था, तो भी हमेशा सदाचार का ही आचरण करता था।
विनीत मन्त्री एक बार साधुओं को वन्दना करने के लिए उपाश्रय में गया। वहाँ एक साधु ग्लान (बीमार) थे। उन्हें देखकर वह बोला- "मेरे घर बीमारी मिटाने वाली अच्छी औषध है। दो साधुओं को भेजकर अभी मँगा लीजिये" यह कहकर और साधुओं को साथ लेकर वह घर आया। दोनों साधु बाहर खड़े
और आप भीतर चला गया। इस समय किसी सेठ की गुणवती कन्या के साथ उसका सम्बन्ध (विवाह) होने को था और ज्योतिषी ने उसी दिन लग्न का मुहूर्त बताया था। उसे बाहर खड़े हुए उन साधुओं को औषध देने की सुध न रही। साधु थोड़ी देर तक वहाँ खड़े रहे, फिर उपाश्रय को लौट आये। लग्न का मुहूर्त उसी दिन का था, इसलिये मन्त्री ने सब सामान फौरन तैयार कराया। इतने में उसे दवा देने की बात याद आई। बाहर देखा, मुनि चले गये हैं। विनय पर दृष्टान्त
तृतीय प्रस्ताव