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प्रश्न यह उठता है कि विमलसूरि के बाद की परंपरा होने पर भी गुणभद्र ने विमलसूरि व रविणेश की कथाओं का अनुकरण क्यों नहीं किया । इस प्रश्न का उत्तर नाथूराम प्रेमी ने इस प्रकार दिया है- "इन दोनों धाराओं में गुरु-परंपरा भेद भी हो सकता है। एक परंपरा ने एक धारा को अपनाया, दूसरी ने दूसरी को । ऐसी दशा में गुणभद्रस्वामी ने "पउमचरिय" की धारा से परिचित होने पर भी उस ख्याल से उसका अनुकरण किया होगा कि यह हमारी गुरु-परंपरा की नहीं है । यह भी संभव हो सकता है कि उन्हें " पउमचरिय" के कथानक की अपेक्षा यह कथानक अच्छा मालूम हुआ हो।'
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सारांशतः विमलसूरि ने जैनरामकथा परंपरा का सूत्रपात कर जो स्रोतवाहिनी प्रवाहित की थी, आज भी उसका छलछलाता नीर जनमानस के कंठ को गीला कर रहा है। इतना अवश्य है कि भारतीय ब्राह्मण परंपरा जैनश्रमण परंपरा के इस रामकथा साहित्य को शत-प्रतिशत मान्यता देने को तैयार नहीं है । इसके कुछ वास्तविक कारण भी हैं जैसा कि डॉ. रामनरेश त्रिपाठी ने लिखा है - "रामकथा की बढ़ती ख्याति का लाभ बौद्ध एवं जैनों ने अपने ढंग से उठाया । यह अनुरुप कथानक जैन धर्म के प्रचार के लिए ग्रहण किया गया अन्यथा वाल्मीकि व तुलसी की कथा पर्याप्त थी। 25 ब्राह्मण परंपरा की रामकथा को संशोधित कर उसे अपने धर्म के अनुरुप आयाम देकर जैन कवियों ने मूलकथा को नया मोड़ दिया । "
जैन रामकथा परंपरा में त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व - ७ ( जैन रामायण) का स्थान : ब्राह्मण परंपरा में रामकाव्य के अनेक ग्रंथरत्न उपलब्ध होने के बावजूद भी तुलसी के मानस को जिस आसन पर आरुढ़ किया है वह स्थान सर्वोच्च है। जैन परंपरा में भी इसी प्रकार रामकथात्मक अनेक ग्रंथों की रचना होने के पश्चात् भी जो स्थान जैन रामायण (हेमचंद्र) ने प्राप्त किया है। वह दूसरों के लिए अप्राप्य है। वैसे जैन धार्मिक साहित्य पर संप्रदायवाद का आरोप लगाया जाता रहा है। जैनेत्तर साहित्यकारों के अनुसार जैन धर्मग्रंथों को धर्मानुसार ढाल दिया गया एवं स्वीकृत सिद्धांतों के अनुसार जीवन विताने का उपदेश दिया गया। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी लिखते हैं- " स्वभावतः ही इसमें जैन धर्म की महिमा बताई गई हैं और उस धर्म के स्वीकृत सिद्धांतों के अनुसार जीवन बिताने का उपदेश दिया गया है परंतु इस कारण से इन पुस्तकों का महत्त्व कम नहीं होता । परवर्ती हिन्दी साहित्य के काव्यरुप अध्ययन के लिए ये पुस्तकें सहायक हैं " " धार्मिक ग्रंथों पर दृष्टि डालते हुए आचार्य द्विवेदी लिखते हैं- "उपदेश विषयक इन रचनाओं को, जिसमें केवल सूखा धर्मोपदेश मात्र लिखा गया है, साहित्यिक विवेचना के योग्य नहीं समझना उचित ही है, परंतु ऊपर जिस सामग्री की चर्चा की गई है उसमें कई रचनाएँ ऐसी हैं जो धार्मिक तो हैं किंतु उनमें साहित्यिक सरसता बनाए रखने का पूरा प्रयास है। धर्म
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