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जब वियोग के पश्चात् अंजना एवं पवनंजय मिलते हैं तब अंजना अपने स्वामी को पहचान नम्राकृति धारण कर सलज्ज सम्मुख खड़ी रही। पवनंजय अंजना को बाहों में लेकर पलंग पर बैठ गया। वहाँ दोनों की इच्छानुसार क्रीड़ा करते हुए रसासक्त रात्रि मात्र एक प्रहर के समान शीघ्र ही बीत गई।
इत्युक्तवंतं सा नाथमुपलक्ष्य त्रपावती। पर्यकेषामवष्टभ्याभ्युत्तस्थौ विनमन्मुखा ॥ लतां हस्तीव हस्तेन दोष्णा वलयितेन ताम्। आददानोऽधिपर्यऽकं न्यवदत् पवनंजय ॥ रेमाते तत्र च स्वैरमंजना पवनंजयौ।
विरराम रसावेनेशा च्चैकयामेव यामिनी ॥ सहस्रांशु की जल क्रीड़ा का वर्णन हेमचंद्र ने इस प्रकार किया हैं :
समं राज्ञीसहस्रेण सहस्त्रांशुरसावितः । वशाभिर्बरदंतीव सुखं क्रीडति वीरिभीः ॥ क्षुभितं जलदेवीभिर्यादोभिश्च पलायितम्। जलक्रीडाकराधातैरूजितैस्तस्य दौष्मतः ॥ इदमत्यंतरूद्वत्वात् स्त्रीसहस्रयुतेन च । तेन पर्यस्यमाणत्वात् काम मुल्लुठितं पयः ॥ रोदषी प्लावयित्वोभे बेगाद्वारीदमुद्वतम्।
इह ते प्लावयामास देवपूजां दशाननः ॥ वियोग श्रृंगार : पूर्वराग, मान, प्रवास एवं करुण, वियोग शृंगार के ये चार भेद माने गये हैं। जैन रामायण में ये चारों ही भेद मिलते हैं। यथा,
१. अंजना विरह, २. पवनंजय विरह, ३. वनमाला विरह, ४. सीता विरह, ५. राम विरह, ६. रावण विरह आदि वर्णन । उदारहणार्थ राम वियोग एवं अंजना वियोग के अंश यहाँ प्रस्तुत हैं : सीता के विरह में व्याकुल राम आकाश की ओर निहारते हुए विलाप कर रहे हैं :
वनं भ्रांतमिदं तावन्मया दृष्टा न जानकी। युष्माभिः किं न सा दृष्टा ब्रूत हे वनदेवताः ।। अमुष्मिन्भीषणेडरण्ये भूतश्वापदसंकुले। विमुच्यैकाकिनी सीतां लक्ष्मणाय गतोऽस्मि हा ॥ रक्षोभट सहस्रागे संयत्येकं च लक्ष्मणम्। मुक्तवा भूयोडहमत्रागमहो घीर्मम दुर्धियः ॥ हा सीते निर्जनेऽरण्ये कथं मुक्ता मया प्रिये। हा वत्स लक्ष्मण कथं मुक्तोऽसि रणसंकटे । एवं बुवनरामभद्रो सूर्छया न्यपतक्षितौ। क्रुन्दभ्दिः पक्षिभिरपि वीक्ष्यमाणो महाभुजः ॥
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