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________________ भगवान् श्री पद्मप्रभ / ६५ राजकीय उत्सव मनाया गया । नामकरण के प्रसंग में राजा धर ने बताया कि यह बालक जब गर्भ में था तब इसकी माता को पद्मों की शय्या पर सोने का दोहद ( इच्छा ) उत्पन्न हुआ था। बालक के शरीर की प्रभा भी पद्म जैसी है, अतः इसका नाम 'पद्मप्रभ कुमार' ही रखा जाए। सबने पद्मप्रभकुमार नाम से बालक का पुकारा। विवाह और राज्य बाल्यावस्था से जब पद्मप्रभ कुमार युवक हुए तब राजा धर ने सुयोग्य राजकन्याओं के साथ उनका विवाह तथा कुछ वर्षों पश्चात् योग्य समझकर पद्मप्रभ का राज्यभिषेक कर दिया। राज्य प्रशासन का दायित्व सौंपकर राजा स्वयं साधना में लीन हो गए। पद्मप्रभ निर्लिप्त भाव से प्रजा का पालन करने लगे । अवस्था के साथ उनमें उन्माद नहीं जागा अपितु वात्सल्य और प्रेम उभरा। प्रजा के हित- चिंतन में उनका सारा समय बीतता । कभी विश्राम नहीं करते। उनके संरक्षण में लोग सर्वथा निश्चित थे । एक प्रकार से प्रभु उन सबके पारिवारिक मुखिया के रूप में अभिन्न व आत्मीय बन गए थे । दीक्षा लंबे अर्से से राज्य का दायित्व निभाने के बाद भोगावली कर्मों को निःशेष समझकर भगवान् दीक्षा के लिए उद्यत हुए। लोकांतिक देवों ने पांचवें स्वर्गलोक से आकर निवेदन किया- 'प्रभो! विश्व के आध्यात्मिक उन्नयन के लिए प्रयत्न कीजिए । समय आ गया है, अब धर्मचक्र का प्रवर्तन करिए।' भगवान् पद्मप्रभ ने अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंप कर वर्षीदान दिया। भगवान् के वर्षीदान से आर्यक्षेत्र में हलचल मच गई। पद्मप्रभ से अन्य सहस्रों लोक परिचित थे । प्रभु के वैराग्य भाव ने उन सहस्रों लोगों को भी विरक्त बना दिया। निश्चित तिथिकार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन हजारों हजारों व्यक्ति बाहर से आ गए। नगर के बाहर एक हजार व्यक्ति तो भगवान् के साथ प्रव्रजित होने को कटिबद्ध थे । सब अपने- अपने घरों से तैयार होकर आए थे। भगवान् के दीक्षा महोत्सव पर आर्य जनपदों के नागरिकों के साथ बड़ी संख्या में देवता एवं चौसठ इन्द्र एकत्रित हुए थे । भगवान् सुखपालिका में बैठकर उद्यान में आए। आभूषण उतारे, पंचमुष्टि लुंचन किया। एक हजार व्यक्तियों के साथ उन्होंने श्रमण- धर्म स्वीकार किया । दीक्षा के दिन प्रभु के चौविहार बेले का तप था। दूसरे दिन ब्रह्मस्थल के सम्राट् सोमदेव के यहां उनका पारणा हुआ। देवों ने तत्काल पंच- द्रव्य बरसाकर दान की महिमा का बखान किया । दीक्षा के बाद मन, वचन और शरीर से सर्वथा एकाग्र होकर वे ध्यान और तपस्या में लगे । छह महिनों में ही उन्होंने कर्म- प्रकृतियों का क्षय करते हुए क्षपक
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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