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भगवान् श्री सुमतिनाथ/६१
हूं। माता अपने अंगजात को कभी मृत देखना नहीं चाहती। वह महिला झूठी है जिसमें बच्चे की मौत की बात सुनकर भी सिहरन तक नहीं छूटी। पर छूटे कैसे? बेटा उसका है ही नहीं।' उसने कठोरता से कहा- ‘सच बोल, वरना कोड़े बरसेंगे!' इस पर उस महिला ने तुरन्त सच- सच बता दिया। पुत्र असली माता को सौंप दिया गया।
जब मुझे महलों में इस न्याय का पता लगा तो मैं महारानी की कुशलता व सूझबूझ पर चकित रह गया। मैंने सोचा- 'यह गर्भगत बालक का ही प्रभाव है, अतः मेरे चिंतन में बालक का नाम सुमति कुमार रखा जाए।' उपस्थित लोगों ने कहा- यही नाम ठीक है, क्योंकि इस नाम के साथ गर्भकालीन घटनाओं का इतिहास जुड़ा हुआ है। ___ आवश्यक चूर्णि में यह घटना कुछ भिन्न रूप में मिलती है . महारानी बालक को चीरने की बात न कहकर सिर्फ इतना ही कहती है कि मेरे गर्भ में भावी तीर्थंकर है, उसका जन्म हो तब तक बालक मुझे सौंप दो, बाद में निर्णय हो जाएगा। इस बात के लिये नकली मां तुरन्त रजामंद हो जाती है किन्तु असली मां मना करती हुई पुत्र विरह की व्याकुलता प्रकट करती रही। रानी उसकी व्याकुलता देखकर उसके पक्ष में निर्णय दे देती है। विवाह और राज्य
राजकुमार सुमति ने ज्योंही युवावस्था में प्रवेश किया, महाराज मेघ ने अनेक सुयोग्य समवयस्क कन्याओं से उसका विवाह कर दिया। भोगावली कर्मों के उदय से वे पंचेन्द्रिय सुखों का उपभोग करने लगे। अवसर देखकर सम्राट मेघ ने राजकुमार सुमति का राज्याभिषेक किया और स्वयं निवृत्त होकर साधना में निरत हो गये।
राजकुमार सुमति राजा बनकर राज्य का समुचित संचालन करने लगे। जनता के दिलों में राजा के प्रति गहरी आस्था थी। लोग उनको यथा- नाम तथा- गुण मानते थे। उनका जो भी आदेश होता, लोग श्रद्धा से स्वीकार करते थे। राजकीय व्यवस्था बहुत ही सुन्दर रूप में चलती थी। भोगावली कर्मों के क्षीण होने पर नरेश संयम की ओर प्रवृत्त हुए। लोकांतिक देवों के आगमन के बाद भगवान् ने वर्षीदान दिया।
निर्धारित तिथि वैशाख शुक्ला नवमी के दिन एक हजार व्यक्तियों के साथ पंचमुष्टि लोच करके सावद्य योगों का सर्वथा त्याग कर दिया। उन्होंने भोजन करके दीक्षा ली थी। कुछ ग्रंथों में आपके षष्ठ भक्त (बेले) की तपस्या होने का उल्लेख है। दूसरे दिन विजयपुर के राजा पद्म के यहां उनका प्रथम पारणा हुआ।
भगवान् बीस वर्ष तक छद्मस्थ काल में उत्कृष्ट साधना करते हुए विचरे ।