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भगवान् श्री संभवनाथ / ५१
नामकरण
पुत्र के नामकरण के उत्सव में परिवार व राज्य के प्रतिष्ठित नागरिक एकत्रित हुए । उन्होंने बालक को आशीर्वाद दिया। नाम के संबंध में सम्राट् जितारि ने बताया कि इस बार राज्य की पैदावार अभूतपूर्व हुई है। इस वर्ष की फसल राज्य के इतिहास में कीर्तिमान है। मैं सोचता हूं कि ऐसी फसल इस बालक के आने के उपलक्ष में ही संभव हो सकी है। अतः पुत्र का नाम संभवनाथ रखा जाना उपयुक्त होगा । यह नाम सबको उचित लगा और बिना किसी विकल्प के सबने बालक को संभवकुमार कहकर पुकारा ।
विवाह और राज्य
अवस्था के साथ संभवकुमार ने यौवन में प्रवेश किया, तब राजा जितारि ने सुयोग्य कन्याओं से विवाह कर दिया। कुछ समय के बाद आग्रहपूर्वक संभवकुमार को सिंहासनारूढ़ करके स्वयं निवृत्त हो गए।
संभवकुमार का मन युवावस्था में भी राज्यसत्ता व अपार वैभव पाकर आसक्त नहीं बना। वे केवल कर्तव्यभाव से राज्य का संचालन करते रहे। उनके शासन काल में राज्य में अद्भुत शांति रही। चारों ओर समृद्धि का वातावरण छाया रहा। वे ५९ लाख पूर्व तक घर में रहे।
दीक्षा
भोगावली कर्मों की परिसमाप्ति निकट समझकर भगवान् ने वर्षीदान दिया । भगवान् के अभिनिष्क्रमण की बात सुनकर अनेक राजा व राजकुमार विरक्त होकर राजा संभव के साथ घर छोड़ने को तैयार हो गए। निश्चित तिथि मिगसर शुक्ला पूर्णिमा को एक हजार राजा व राजकुमारों के साथ राजा सम्भव सहस्राम्र वन में आए, पंचमुष्टि लुंचन किया, हजारों लोगों के देखते देखते जीवन भर के लिए सावद्य योगों का प्रत्याख्यान किया । चारित्र के साथ ही उन्होंने सप्तम गुणस्थान का स्पर्श किया। उन्हें चौथे मनःपर्यव ज्ञान की प्राप्ति हुई । प्रत्येक तीर्थंकर को दीक्षा के साथ ही चौथा मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हो जाता है। इस ज्ञान का उपयोग कर वे चाहें तो अढाई द्वीप (जंबू द्वीप, धातकी खंड तथा अर्द्ध पुष्कर द्वीप) में समनस्क प्राणियों के मनोगत भावों को जान सकते हैं।
दीक्षा के दिन भगवान् के चौविहार बेले का तप था। दूसरे दिन सावत्थी नगरी के राजा सुरेन्द्र के यहां प्रथम पारणा हुआ ।
भगवान् संभवनाथ चौदह वर्ष तक मुनि अवस्था में विचरण करते रहे। उन्होंने जितेन्द्रियता के साथ कर्म- बंधनों का पूर्णतः सफाया करना प्रारंभ कर दिया । विचरते- विचरते वे पुनः सावत्थी में पधारे। वहीं पर उन्होंने छद्मस्थ काल का अन्तिम चातुर्मास किया ।