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भगवान् श्री अजितनाथ
जैन दर्शन का विश्वास आत्मवाद में है। जितने भी तीर्थंकर होते हैं, वे सब साधना के माध्यम से ही तीर्थंकरत्व की भूमिका को प्राप्त करते हैं। आत्मा अपनी सजगता और सक्रियता से कर्म-मुक्त होकर परमात्मा बनती है। परमात्मा कभी सकर्मा आत्मा नहीं बनती। अणु से पूर्ण की ओर तो गति होती है, किन्तु पूर्ण से अणु की ओर गति नहीं होती। पूर्व भव
दूसरे तीर्थंकर भगवान् अजितनाथ ने भी अपने पूर्व जन्म में घोर तपस्या की थी। जंबू द्वीप के महाविदेह क्षेत्र की सीता नदी के तट पर वत्स नामक देश में सुसीमा नगरी थी। वहां के सम्राट् विमलवाहन के भप में उन्होंने बहुत ही विरक्ति का जीवन बिताया था। विपुल भोगसामग्री के बावजूद इनका जीवन वासना से उपरत था। आचार्य अरिदमन का सम्पर्क पाने के बाद वे साधना के लिए और भी कृत संकल्प हो गए। पुत्र का राज्याभिषेक कर स्वयं गुरू चरणों में प्रद्रजित
हो गए।
दीक्षित होने के बाद विमलवाहन मुनि तप में लीन हो गये । एकावली, रत्नावली, लघुसिंह, महासिंह विक्रीड़ित जैसी कठोरतम तपस्याएं कीं। तपस्या के साथ ध्यान, स्वाध्याय, सेवा आदि कर्म-निर्जरा के अनेक साधन अपनाए। महान् कर्म-निर्जरा करके तीर्थंकर नाम-कर्म का बंध किया। अन्त में अनशनपूर्वक प्राण छोड़कर विजय नामक अनुत्तर विमान में गये। दो रानियों को चौदह स्वप्न
जितशत्रु का राजप्रासाद उस समय दुनिया में अद्वितीय था। इसका एक कारण और भी था कि जिस रात्रि में महारानी विजयादेवी को चौदह महास्वप्न आए. उसी रात्रि में राजा जितशत्रु के छोटे भाई युवराज सुमित्र की धर्मपत्नी वैजयंती को भी चौदह महास्वप्न आए। देवत्व की तेतीस सागरोपम आयु भोगकर भरत-क्षेत्र की विनीता नगरी में राजा जितशत्रु के राजमहल में आकर महारानी विजयादेवी की कुक्षि में अवतरित हुए। उस रात्रि में महारानी विजयादेवी ने चौदह महास्वप्न