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________________ २६/तीर्थकर चरित्र रहती। न ज्यादा सर्दी थी न ज्यादा गर्मी थी। बरसात भी ज्यादा नहीं होती थी। अब ऋतुएं कभी अनुकूल तो कभी प्रतिकूल हुआ करेंगी। सर्दी-गर्मी की मात्रा भी बढ़ेंगी। शारीरिक सहन-शक्ति क्रमशः घटती जाएगी अतः घर बनाकर रहना अधिक सुरक्षित होगा। घर की उपयोगिता समझाने के साथ ही ऋषभ ने सामूहिक जीवन की उपयोगिता समझाई। समूह के साथ रहने वाला एक दूसरे का सहयोगी बन सकता है। हर विपत्ति का सामना मिलकर ही सरलता से किया जा सकता है। गृहस्थ की सारी आवश्यकताएं अलग-अलग लोगों द्वारा पूरी होती थी। एक दूसरे के निकट रहने पर ही एक दूसरे के उत्पादन का पूरा-पूरा लाभ मिल सकता है। बात लोगों के समझ में आ गई, बड़ी संख्या में युगल जंगलों को छोड़कर ग्रामों में बस गये। सर्वप्रथम जो बस्ती बनी उसका नाम विनीता रखा गया। ऋषभ ने अपना निवास स्थान वहीं बनाया। भारत की प्रथम राजधानी होने का गौरव भी उसे ही प्राप्त हुआ। उसे ही आगे चल कर 'अयोध्या' के नाम से पुकारा जाने लगा। दण्ड विधि तात्कालिक अभाव की परिस्थिति को समाप्त करने के बाद ऋषभ ने यौगलिकों में बढ़ती हुई अपराध-वृत्ति पर ध्यान दिया। चालू दण्ड-विधि असफल हो चुकी थी। सर्वोपरि 'धिक्कार' दण्ड को पाने वाले अनेक लोग हो चुके थे। किसी के मन में संकोच नहीं रहा। उन्होंने सबको बुलाकर अपराध न करने की चेतावनी दी। साथ में घोषणा की कि अगर किसी ने अब कोई गलत काम किया तो उनके लिए 'हाकार' 'मकार' तथा 'धिक्कार' दण्ड से काम नहीं चलेगा, उनके लिए चार दण्ड और घोषित करता हूं : (१) परिभाषण - अपराधी को कठोर शब्दों से प्रताड़ित करना। (२) मंडली-बंध - अपराधी को सीमा विशेष में रोके रखना। (३) चारक-बंध - अपराधी को विशेष स्थान में रोके रखना-कैद करना। (४) छविच्छेद - अपराधी के अंग विशेष का छेदन या लांछित करना। उपरोक्त चारों दण्ड बड़े प्रभावक रहे। इनसे विश्रृंखलित मनोवृत्ति सर्वथा नियंत्रित हो गई थी। लोग नई सामाजिक पद्धति में ढल चुके थे, सभी सन्तुष्ट थे। खाद्य वस्तुओं का अभाव मिट जाने के बाद सभी क्रमशः अनुशासित जीवन बिताने के आदी बन गये थे। ऋषभ के प्रति लोगों में गहरा विश्वास था। सारी व्यवस्था स्वतः संचालित होने लगी थी। नवीन परिस्थितियों में सभी प्रसन्न थे। उपरोक्त चारों दंडों के संबंध में कुछ आचार्यों का अभिमत है कि अंतिम दो नीतियां भरत के समय प्रचलित हुई थीं, परन्तु कई आचार्य मानते हैं कि ये सारे दंड ऋषभ के समय में ही लागू हो गये थे।
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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