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भगवान् श्री ऋषभदेव/१७
थे, पर प्रत्युत्पन्न मति से उन्होंने कहा- 'स्वप्न क्या हैं! प्राणिमात्र के उज्ज्वल भविष्य की सूचना है। लगता है जल्दी ही हमारी चिन्ता समाप्त होगी। जनपद की समस्याएं सुलझेगी। कोई ऐसा भुवनभास्कर तुम्हारे गर्भ में आया है, जिससे सारा विश्व आलोकित हो उठेगा। ___ गर्भ काल पूरा होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की मध्य रात्रि में माता मरुदेवा ने एक पुत्र तथा एक पुत्री को युगल रूप में जन्म दिया। भगवान के जन्म पर समूचा विश्व पुलकित हो उठा, अज्ञात शांति का अनुभव करने लगा। नरकगत जीवों को भी क्षणभर के लिए शान्ति मिली। चौसठ इन्द्र व सहस्त्रों देवों ने धरती पर आकर भगवान् का जन्मोत्सव मनाया। इतनी बड़ी संख्या में देवों को देखकर आस-पास के यौगलिक इकट्ठे हो गये। उत्सव विधि से अपरिचित होते हुए भी देखा-देखी सभी ने मिलकर जन्मोत्सव मनाया। इस अवसर्पिणी काल में सबसे पहले जन्मोत्सव भगवान् ऋषभ देव का ही मनाया गया था । जन्मोत्सव मनाने की विधि वहीं से प्रारम्भ हुई थी। नामकरण
भगवान ऋषभ के नामकरण के उत्सव पर बड़ी संख्या में यौगलिक इकट्ठे हुए। उस युग की यह पहली घटना थी कि किसी के नामकरण पर इतने लोग इकट्ठे हुए हों। बालक का क्या नाम रखा जाय, इस संबंध में बोलते हुए नाभि कुलकर ने कहा- जब यह गर्भ में आया था तब इसकी माता को चौदह स्वप्न दिखाई दिये थे। उनमें पहला स्वप्न वृषभ का था। बच्चे के उरु प्रदेश में भी वृषभ का चिन्ह है, अतः मेरी दृष्टि में बालक का नाम वृषभ कुमार रखा जाये। उपस्थित सभी युगलों को यह नाम उचित लगा, सभी ने बालक को इसी नाम से पुकारा। पुत्री का नाम दिया सुनंदा। ___दिगम्बर आम्नाय में नामकरण के बारे में भिन्न मत है। महापुराण के अनुसार ग्यारहवें दिन इन्द्र ने स्वयं आकर नामकरण विधि लोगों को बताई । इन्द्र को आया देखकर काफी युगल इकट्ठे हो गए। इन्द्र ने लोगों से कहा- यह बालक आगे चलकर धर्मरूपी अमृत की वर्षा करेगा, अतः बालक का नाम वृषभ कुमार रखता हूँ| इन्द्र की बात का समर्थन करते हुए सभी युगलों ने बालक को वृषभ कुमार कह कर पुकारा।
वैदिक ग्रंथ भागवत के रचियता ने लिखा है- 'बालक का सुन्दर व सुदृढ़ शरीर, तेजस्वी ललाट देखकर नाभि राजा ने उसका नाम "ऋषभ" रखा। जैन इतिहासविदों ने जैन धर्म के आद्यप्रवर्तक होने से 'आदिनाथ' के रूप मे उनका उल्लेख किया है।
भगवान् का सबसे पहले नाम 'वृषभदेव' हुआ। संभवतः उच्चारण सरलता से