________________
तीर्थंकर चरित्र/१३
११. असंदिग्धत्व - संदेह रहित भाषा। १२. निराकृतान्योत्तरत्व - वचन का दूषण रहित होना । १३. हृदयंगमता - आकर्षक व मनोहर वाणी। १४. मिथः साकांक्षता - देश, काल की अनुसारिणी वाणी। १५. देशकालाव्यतीतत्व – देश, काल के अनुरूप अर्थ कहना। १६. तत्त्वनिष्ठता - विवक्षित वस्तु का जो स्वरूप हो उसी के अनुसार
उसका व्याख्यान करना। १७. अप्रकीर्णप्रसृतत्त्व - अति विस्तार रहित संबद्ध भाषा का प्रयोग। १८. अस्वश्लाघान्यनिन्दिता- स्व प्रशंसा व पर निन्दा रहित वचन । १९. आभिजात्य - वक्ता व प्रतिपाद्य भाव का उचित होना। २०. अतिस्निग्ध मधुरत्व - अति स्नेह व माधुर्य से परिपूर्ण वाणी। २१. प्रशस्यता
- प्रशंसा योग्य भाषा २२. अमर्मवेधिता - दूसरों के मर्म का प्रकाशन न करने वाली भाषा । २३. औदार्य
- उदार वाणी। २४. धर्मार्थप्रतिबद्धता - श्रुत चारित्र रूप धर्म व मोक्ष रूप अर्थ से संबद्ध
होना। २५. कारकाद्यविपर्यास - कारक, काल, वचन, लिंग आदि के विपर्यास रूप
दोष से रहित। २६, विभ्रमादिवियुक्तता - भ्रांति, विक्षेप रहित वाणी। २७. चित्रकृत्व - निरन्तर आश्चर्य उत्पन्न करने वाली वाणी। २८ अद्भुतत्व -अद्भुत-विस्मयकारी वाणी। २९. अनतिविलम्बिता - विलंब रहित-धारा प्रवाह वाणी। ३०. अनेकजाति वैचित्र्य - प्रतिपाद्य की विविधता होने से वाणी में विचित्रता
होना। ३१. आरोपितविशेषता - विशेषण-उपमा से यथावत् व्यक्त करना । ३२. सत्त्वप्रधानता - ओजस्वी-साहसिक वाणी। ३३. वर्णपदवाक्यविविक्तता - वर्ण, पद और वाक्यों का अलग-अलग होना ३४. अव्युच्छित्ति - व्यक्ति के पूर्ण रूप से समझने तक उसका
___ व्याखान करते रहना। ३५. अखेदित्व - उपदेश देते हुए थकावट अनुभव न करना ।
ये पेंतीस उनके प्रवचन-व्याख्यान-उपदेश की अतिशय-विशेषताएं होती
हैं