________________
भगवान् श्री महावीर / २१९
अनर्थ का मूल घोषित किया । धार्मिक प्रगति में अर्थ को बाधक बताते हुए मुनिचर्या में उसका सर्वथा त्याग अनिवार्य बतलाया । श्रावक धर्म में उस पर नियंत्रण करना आवश्यक बतलाया ।
भगवान् महावीर के जितने श्रावक हुए, उनके पास उस समय में जितना परिग्रह था उससे अधिक परिग्रह का उन्होंने त्याग कर दिया था । वर्तमान परिग्रह से अधि कमरिग्रह का संग्रह किसी श्रावक ने नहीं रखा। प्रतिवर्ष उतना ही कमाते थे, जितना खर्च होता था। शेष का विसर्जन कर वर्ष के अन्त में परिग्रह का परिमाण बराबर कर लेते थे । उनका उपदेश था कि संग्रह समस्याओं को पैदा करता है, धार्मिक व्यक्ति जितना परिग्रह से हल्का रहता है, उतना ही अधिक अध्यात्म में प्रगति कर सकता हैं।
अनेकान्त
अहिंसा के विषय में भगवान् महावीर के सूक्ष्मतम दृष्टिकोण का लोहा सारा विश्व मानता है। उनकी दृष्टि में शारीरिक हिंसा के अतिरिक्त वाचिक तथा मानसिक कटुता भी हिंसा है। सूक्ष्मतम अहिंसा के दृष्टिकोण को साधना का विषय बनाना अन्य दार्शनिकों के लिए आश्चर्य का विषय था ।
वैचारिक अहिंसा को विकसित करने के लिए उन्होंने स्याद्वाद ( अनेकान्त ) का प्रतिपादन किया। उनका मानना था कि हर वस्तु को एकांगी पकड़ना ही आग्रह है, सत्य का विपर्यास है, अनन्तधर्मा वस्तु के एक धर्म को मान्यता देकर शेष धर्मों को नकारना स्वयं में अपूर्णता है। हर वस्तु का अपेक्षा से विवेचन करना ही यथार्थ को पाना है । जैसे घड़े को घड़े के रूप में कहना उसके अस्तित्व का बोध है । घड़े को पट के रूप में नकारना नास्तित्व का बोध है। एक ही घड़े के अस्तित्व और नास्तित्व, दो विरोधी धर्मों का समावेश करने का नाम ही स्याद्वाद है। इस प्रकार हर वस्तु अपनी-अपनी स्थिति में अस्तित्व - नास्तित्व आदि अनेक धर्मों वाली होती है । स्याद्वाद को मान लेने के बाद एकान्तिक आग्रह स्वतः समाप्त हो जाता है । वैचारिक विग्रह का फिर कहीं अवकाश नहीं रहता ।
महावीर की आयु एवं चातुर्मास
भगवान् महावीर की सर्वायु बहत्तर वर्ष थी। इसमें तीस वर्ष गृहवास, बारह वर्ष व तेरह पक्ष छद्मस्थ अवस्था, तेरह पक्ष कम तीस वर्ष केवली पर्याय में बिताया।
जन्म
दीक्षा
केवलज्ञान
निर्वाण
ईसापूर्व ५९९
ईसापूर्व ५६९
ईसापूर्व ५५७
ईसापूर्व ५२६
विक्रम पूर्व ५४२
विक्रम पूर्व ५१२
विक्रम पूर्व ५००
विक्रम पूर्व ४७०
1