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२१२/तीर्थकर चरित्र
भगवान् की पुत्री साध्वी प्रियदर्शना भी पहले अलग हुई। बाद में श्रावक ढंक से प्रतिबोध पाकर पुनः भगवच्चरणों में पहुंचकर अपनी संयम-साधना में लीन हो गई। सर्वज्ञता का सोलहवां वर्ष
मिथिला का पावस प्रवास संपन्न कर भगवान् श्रावस्ती पधारे । वहां पार्श्व परंपरा के प्रभावशाली आचार्य केशीश्रमण अपने पांच सौ साधुओं के साथ श्रावस्ती पधारे। गौतम स्वामी के साथ केशीकुमार श्रमण का लंबा वार्तालाप हुआ। इसका विस्तृत वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र के तेइसवें अध्ययन में मिलता है । गौतम के विचारों से प्रभावित होकर केशीकुमार श्रमण अपने पांच सौ साधुओं के साथ चातुर्याम धर्म से पंच महाव्रत धर्म को स्वीकार किया और महावीर के श्रमण संघ में सम्मिलित हो गये।
श्रावस्ती से अहिच्छत्रा होते हुए हस्तिनापुर पधारे। वहां का राजा शिव पहले संन्यासी परंपरा में दीक्षित हुआ । तपस्या के द्वारा उसे विभंग अज्ञान व अवधि दर्शन उत्पन्न हुआ। उससे सात द्वीप-समुद्र को देखने लगा और निर्णय घोषित कर दिया कि सात ही द्वीप समुद्र हैं।" गौतम के पूछने पर भगवान् ने कहा - 'सात नहीं, असंख्य द्वीप समुद्र है।" यह बात जब शिव के पास पहुंची तो वह शंकित हो गया। इस शंका से वह विशेष ज्ञान विलुप्त हो गया। शंका का समाधान पाने शिव भगवान् के पास आया, समझा और दीक्षित हो गया, अंत में निर्वाण को पाया। इस वर्ष का चातुर्मास वाणिज्य ग्राम में हुआ। सर्वज्ञता का सतरहवां वर्ष __इस वर्ष भगवान् ने राजगृह में चातुर्मास बिताया। वहां अनेक मुनियों ने विपुलाचल पर्वत पर संथारा कर स्वर्ग एवं निर्वाण को प्राप्त किया। सर्वज्ञता का अठारहवां वर्ष
राजगृह चातुर्मास संपन्न कर भगवान् पृष्ठ चंपा पधारे। वहां के राजा शाल एवं उनके छोटे भाई युवराज महाशाल ने अपने भाणेज गांगली को राज्य भार संभलाकर भगवान् के पास संयम स्वीकार किया। चंपा से भगवान् दशार्णपुर पधारे। वहां का राजा दशार्णभद्र सजधज कर प्रभु दर्शन के लिए निकला। उसके भीतर यह अहं था कि इतनी ऋद्धि-सिद्धि के साथ शायद ही कोई राजा दर्शन करने आया हो! आकाश मार्ग से आ रहे इन्द्र को इस अहं का आभास हो गया। वह अपनी ऋद्धि को प्रदर्शित करता हुआ आया। दशार्णभद्र का यह देखते ही अहं विगलित हो गया। तत्काल राजा ने भगवान् के पास दीक्षा स्वीकार कर ली। इन्द्र ने मुनि दशार्णभद्र को नमस्कार किया। भगवान् ने इस वर्ष वाणिज्य ग्राम में चातुर्मास किया।