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भगवान् श्री महावीर / १८९ रहना उचित नहीं समझा और वहां से वाचाला की ओर विहार कर दिया ।
वाचाला के दो सन्निवेश थे एक उत्तर वाचाला व दूसरा दक्षिण वाचाला । दोनों सन्निवेश के बीच सुवर्ण बालुका व रौप्य बालुका नामक दो नदियां बहती थी । भगवान् दक्षिण वाचाला से उत्तर वाचाला की ओर जा रहे थे। सुवर्ण बालुका नदी के किनारे भगवान् के कंधे पर इन्द्र द्वारा डाला गया देवदूष्य वस्त्र वहीं कांटों में उलझकर पीछे रह गया। महावीर आगे चले और बाद में कभी वस्त्र ग्रहण नहीं किया। इस तरह तेरह महीनों के बाद वे पूर्ण अचेल हो गये ।
चण्डकौशिक का उद्धार
उत्तर वाचाला जाने के लिए दो मार्ग थे । एक कनकखल आश्रम के भीतर से होकर जाता था, दूसरा आश्रम के बाहर होकर । भीतर वाला मार्ग सीधा होने पर भी भयंकर एवं उजड़ा हुआ था। बाहर का मार्ग लंबा व टेढ़ा होने पर भी निरापद था। प्रभु भीतर के मार्ग से चले। मार्ग पर ग्वाले मिले। उन्होंने कहा - 'देवार्य ! यह मार्ग ठीक नहीं है । इस रास्ते पर एक भयानक दृष्टिविष सर्प रहता है जो राहगीरों को जलाकर भस्म कर देता है। आप इस मार्ग से न जाकर बाहर के मार्ग से जाएं तो अच्छा रहेगा।'
महावीर ने उनकी बात पर न तो ध्यान दिया न ही उत्तर । वे चलते हुए सर्प के बिल के पास ध्यानारूढ़ हो गये। सारे दिन आश्रम क्षेत्र में घूमकर सर्प जब अपने स्थान पर लौटा। उसकी दृष्टि ध्यान में खड़े भगवान् पर पड़ी तो वह क्रुद्ध हो गया। उसने अपनी विषभरी दृष्टि भगवान् पर डाली। साधारण प्राणी तो उस सर्प के एक बार के दृष्टिपात से जलकर भस्म हो जाता था, किन्तु भगवान पर उस विषमयी दृष्टि का कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। तीन बार भयंकर दृष्टि डालने पर भी जब कोई असर नहीं पड़ा तो उसका क्रोध सीमा लांघ गया। उसने भगवान् के पैरों पर डंक लगाया और श्वेत रुधिर की धारा बह चली। रक्त में दूध का स्वाद पाकर चंडकौशिक स्तब्ध रह गया । वह एकटक प्रभु की शांत व सौम्य मुखमुद्रा को नीहारने लगा।
चंडकौशिक को शांत देख महावीर ने कहा- "उवसम भो चंडकोसिया" । शांत हो चंडकौशिक | चंडकौशिल यह नाम तो मैंने कहीं सुना है। इस ऊहापोह में उसे जाति स्मरण ज्ञान हो गया। उसे अपने पिछले तीन भव याद आ गये। पहले भव में वह तपस्वी मुनि था । एक बार तपस्या का पारणा करने जाते समय मेंढ़की दबकर मर गई । शिष्य के द्वारा दो-तीन बार याद दिलाने पर कि आप इसकी आलोचना करें, तो वह तपस्वी क्रुद्ध हो गया और शिष्य को मारने के लिए उठा । क्रोधावेश में ध्यान न रहने से एक स्तम्भ से सिर टकरा गया, फलतः उसी समय कालधर्म को प्राप्त कर ज्योतिष्क जाति में देव बना । देवागु भोगकर तीसरे भव में कनकखल