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२. सदा ध्यान में अवस्थित रहूंगा ।
३. नित्य मौन रखूंगा ।
४. हमेशा हाथ में ही भोजन करूंगा ।
५. गृहस्थों का कभी विनय नहीं करूंगा।
भगवान् श्री महावीर / १८७
शूलपाणि यक्ष का उपद्रव
मोराक सन्निवेश के आश्रम से विहार कर भगवान् अस्थिग्राम पधारे। एकांत स्थल की खोज में नगर के बाहर शूलपाणि यक्ष के मंदिर में ठहरने की भगवान् ने गांव वालों से अनुमति मांगी। गांव वालों ने कहा - 'बाबा ! रहो भले, पर इस मंदिर में एक यक्ष रहता है जो स्वभाव का बड़ा क्रूर है। रात्रि में वह किसी को नहीं रहने देता, इसलिए आप अन्यत्र ठहरें तो ठीक रहेगा।' सायंकाल पुजारी इन्द्रशर्मा ने पूजा करने के बाद भगवान् को यक्ष के भयंकर उत्पात की सूचना दी, फिर भी महावीर ध्यानावस्थित रहे ।
रात्रि में अंधकार व्याप्त होने के बाद यक्ष प्रकट हुआ। लोगों के मना करने के बावजूद भगवान् के वहां रहने से यक्ष ने इसे अपने प्रति धृष्टता समझी । यक्ष ने भयंकर अट्टहास किया जिससे पूरा वनप्रदेश कांप उठा। गांववासियों की छातियां धड़कने लगी, हृदय दहल उठे, पर भगवान निश्चल खड़े रहे। अब यक्ष ने हाथी, पिशाच आदि रूप बनाकर महावीर को विविध कष्ट दिये । भगवान् के आंख, कान आदि सात स्थानों में ऐसी भयंकर वेदना उत्पन्न की कि सामान्य प्राणी के प्राण पखेरू उड़ जाये, पर महावीर कष्टों को सहते रहे। अंत में वह भगवान की दृढ़ता एवं अपूर्व सहिष्णुता के सामने हार गया। शांत होकर यक्ष भगवान् के चरणों में गिर पड़ा और अपने कृत्य के लिए क्षमा मांगते हुए नमस्कार कर चला गया। फिर शेष रात्रि उपसर्गरहित बीती ।
स्वप्न-दर्शन
उसी रात्रि के अंतिम प्रहर में भगवान को मुहूर्त भर नींद आ गई। यह उनके साधना काल की प्रथम व चरम नींद थी। उस समय भगवान ने दस स्वप्न देखे१. अपने हाथ से ताड़-पिशाच को पछाड़ना ।
२. अपनी सेवा करता श्वेत कोकिल ।
३. अपनी सेवा करता विचित्र वर्णवाला कोकिल
४. देदीप्यमान दो रत्नमालाएं ।
५. श्वेत वर्ण वाला गौवर्ग ।
६. विकसित पद्म सरोवर ।
७. अपनी भुजाओं से समुद्र को पार करना ।