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________________ १७८/तीर्थंकर चरित्र कुंडग्राम में मुख्यतः ब्राह्मणों की बस्ती थी। इस बस्ती के नायक थे कोडाल गोत्रीय ऋषभदत्त उसकी पत्नी देवानंदा जालंघर गोत्रीया ब्राह्मणी थी। ऋषभदत्त व देवानंदा भगवान् पार्श्व के अनुयायी थे। क्षत्रिय कुंडग्राम में ज्ञात वंशीय क्षत्रियों की बस्ती थी। उसके नायक थे काश्यप गोत्री महाराज सिद्धार्थ । वे वैशाली गणराज्य के सक्रिय राजन्य पुरुष थे। उनकी रानी त्रिशला वैशाली के सम्राट चेटक की बहिन एवं बालिष्ठ गोत्रीया क्षत्रियाणी थी। सिद्धार्थ व त्रिशला भगवान् पार्श्व की श्रमण परंपरा को मानते थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम नंदिवर्धन था। नंदिवर्धन का विवाह सम्राट् चेटक की पुत्री ज्येष्ठा के साथ हुआ। अवतरण देवायु भोगकर नयसार का जीव भरत क्षेत्र के ब्राह्मणकुण्ड ग्राम के प्रमुख ऋषभदत्त ब्राह्मण की पत्नी देवानन्दा की कुक्षि में अवतरित हुआ। माता देवानन्दा ने चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्न पाठकों ने एक मत से निर्णय दिया- अंतिम तीर्थंकर आपके घर में अवतरित हुए हैं | स्वप्न फल सुनकर सभी प्रसन्न हुए। देवानन्दा विशेष जागरूकता के साथ गर्भ का पालन करने लगी। गर्भ साहरण शक्रेन्द्र महाराज ने एक बार अवधि-दर्शन से ऋषभदत्त के घर देवानन्दा की कुक्षि में प्रभु के अविकसित शरीर को विकसित होते देखा। इन्द्र ने सोचा'तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, प्रतिवासुदेव केवल सत्तासीन कुल में ही उत्पन्न होते हैं। यह आश्चर्य है कि भगवान् का अवतरण ब्राह्मण जैसे याचक कुल में हुआ है। तीर्थंकर सदैव प्रभावशाली कुल में जन्म लेते हैं। वर्तमान में क्षत्रिय वर्ग का प्रभाव अधिक है। सत्ता भी उनके हाथ में है, अतः प्रभु के शरीर का साहरण करके क्षत्रिय कुल में अवस्थित करना चाहिए।' शक्रेन्द्र ने इसी विचार से हरिणगमेशी देव को बुलाकर निर्देश दिया- 'अन्तिम तीर्थंकर देवानन्दा की कुक्षि में हैं, उन्हें क्षत्रियकुण्ड नगर के राजा सिद्धार्थ की रानी त्रिशला की कुक्षि में स्थापित करो तथा महारानी त्रिशला के जो गर्भ है उसे देवानन्दा की कुक्षि में स्थानान्तरित करके मझे सूचित करो।' इन्द्र की आज्ञा पाकर हरिणगमेशी देव चला, देवानन्दा गहरी नींद में सो रही थी। गर्भकाल की वह तयासींवीं रात्रि थी। देव ने भगवान् को नमस्कार कर गर्भ-साहरण की अनुज्ञा मांगी और भगवान् के अर्ध-विकसित डिम्ब का सजगता से साहरण किया तथा महारानी त्रिशला की कुक्षि में स्थापित कर गर्भ की अदला-बदली की प्रक्रिया पूर्ण की । साहरण काल में दोनों माताओं को अवस्वापिनी निद्रा दी गई थी। उसी रात्रि में देवानन्दा और त्रिशला दोनों ने चौदह महारवप्न
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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