SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४८/तीर्थंकर चरित्र वह ग्रहण करेगा। उससे पहले आहार मात्र का त्याग रहेगा। उस दिन से मुनि ढंढ़ण नियमित गोचरी जाता है और समभाव से वापिस आकर स्वाध्याय-ध्यान में प्रवृत्त हो जाता है। वैसे छह महीने की तपस्या करना आसान नहीं है। वास्तव में ढंढ़ण घोर तपस्वी है, उत्कृष्ट तपस्वी है।' वासुदेव कृष्ण ने भावविह्वल होकर पूछा-'ढंढ़ण मुनि अभी कहां हैं? मैं उनके दर्शन करूंगा।' प्रभु ने कहा-'राजमहल जाते हुए तुम्हें ढंढ़ण के दर्शन रास्ते में हो जायेंगे।' वासुदेव कृष्ण वन्दन करके राजमहल की ओर चल पड़े। रास्ते में ढंढ़ण मुनि गोचरी करते हुए मिले। वासुदेव कृष्ण हाथी से नीचे उतरे, विधिवत् वन्दना की । भगवान् नेमिनाथ के धर्मसंघ में उत्कृष्ट तपस्वी आप ही हैं, यह सुखद सूचना भी दी। मुनि मध्यस्थ भाव से आगे बढ़ गये। कृष्ण महाराज राजमहल की ओर चल पड़े। मुनि कुछ कदम आगे बढ़े। एक श्रेष्ठी अपने भवन से नीचे उतरा, वन्दना की व भिक्षा के लिये प्रार्थना की। मुनि गये, केशरिया मोदक एक थाल में भरे हुए थे। मुनि ने गवेषणा की, मोदक लिये। मन में सोचा-'आज अन्तराय कर्म टूटा है, छह महीनों के बाद मुझे अपनी लब्धि का आहार मिला है। आज पारणा होगा।' भगवान् के पास जाकर मुनि ने मोदक दिखलाए। पारणे की आज्ञा ली, प्रभु ने गम्भीर स्वर में कहा-'ढंढण ! तुझे पारणा करना नहीं कल्पता । यह आहार तुम्हारी लब्धि का नहीं, कृष्णजी की लब्धि का है। कृष्णजी ने जब तुम्हें राज पथ में वन्दना की उस समय श्रेष्ठी ने देख लिया था। कृष्ण महाराज प्रसन्न होंगे, इस भावना से उसने मोदक का दान दिया है। तुम्हारे से आकर्षित होकर या दान-भावना से दान नहीं दिया। भगवान् के वचनों को स्वीकार करते हुए ढंढ़ण ने प्रार्थना की-'प्रभो ! आज्ञा दें, इन मोदकों का परिष्ठापन कर दूं? मेरी लब्धि का न होने से मेरे लिए अखाद्य हैं, अभिग्रही होने के कारण दूसरों को दे नहीं सकता। भगवान् ने आज्ञा दी। ढंढ़ण जंगल की ओर चल पड़े। जंगल में अचित्त स्थान देख कर मोदकों को मिट्टी के साथ चूरने लगे। छह महीनों से भूखे होने पर भी उनकी भावना में कोई अन्तर नहीं पड़ा। प्रत्युत भावों की ऊर्ध्वगति और तीव्रता से होने लगी। इधर मोदक चूर रहे थे, उधर कर्म क्षीण हो रहे थे। कुछ ही समय में क्षपक-श्रेणी लेकर उन्होंने केवलत्व को प्राप्त किया । देवों ने केवल महोत्सव किया। अब ढंढ़ण मुनि अन्तराय रहित थे । छह महीनों के बाद सर्वज्ञ बनकर उन्होंने पारणा किया। द्वारिका-दहन की घोषणा भगवान् नेमिनाथ ने अपने सर्वज्ञकाल में अनेक जनपदों की यात्रा की किन्तु
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy