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१४६ / तीर्थंकर चरित्र
गजसुकुमाल की मुक्ति
कुछ समय पश्चात् देवकी के एक पुत्र का जन्म हुआ । वासुदेव कृष्ण ने अपने भाई का जन्मोत्सव विशेष रूप से मनाया। हाथी के तालु के समान सुकोमल शरीर वाला होने के कारण भाई का नाम 'गजसुकुमाल' रखा गया। गजसुकुमाल बड़े हु । एकदा श्री कृष्ण ने सोमिल विप्र की सुंदर कन्या को देखा तो विप्र को पूछकर उसे गजसुकुमाल के लिए कुंआरे अंतः पुर में भेज दिया । गजसुकुमाल बचपन में भी बड़े समझदार थे। भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका पधारे। वासुदेव श्री कृष्ण के साथ राजकुमार गजसुकुमाल भी दर्शनार्थ आये, प्रवचन सुना और संसार से विरक्त हो गये । उन्होंने माता-पिता व भाई से दीक्षा की आज्ञा मांगी। सबने रोकने का भरसक प्रयास किया, पर वे अपने निर्णय पर पूर्ण अटल थे। श्री कृष्ण के अत्यन्त
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आग्रह पर गजसुकुमाल ने एक दिन के लिए द्वारिका का राजा बनना स्वीकार किया। दूसरे दिन भगवान् के पास दीक्षा अंगीकार कर ली। दीक्षित होते ही भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर वे महाकाल श्मशान में गये और वहां भिक्षु की बारहवीं प्रतिमा में लीन हो गये ।
गजसुकुमाल मुनि ध्यान निमग्न थे। उधर सोमिल नामक विप्र यज्ञ की