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________________ भगवान् श्री अरिष्टनेमि/१३३ कालांतर में उसका विवाह चित्रगति के साथ हो गया। अंत में चित्रगति ने अपने पुत्र पुरंदर को राजा बनाकर अपनी पत्नी रत्नवती, अनुज मनोगति तथा चपलगति के साथ मुनि दमधर के पास दीक्षा ली। चिर काल तक ध्यान साधना करते हुए मुनि चित्रगति चौथे माहेन्द्र देवलोक में महर्द्धिक देव बने। उनके दोनों भाई व पत्नी रत्नवती भी उसी देवलोक में देव बने । पाँचवां व छठा भव पूर्व महाविदेह की पद्म विजय के सिंहपुर नगर का राजा हरिनंदी था। उसकी रानी प्रियदर्शना थी। चित्रगति का जीव देवायु भोगकर प्रियदर्शना के पुत्र रूप में जन्मा । नाम दिया गया अपराजित । जनानंदपुर के राजा जितशत्रु थे। उनकी रानी धारिणी थी। रत्नवती का जीव धारिणी की पुत्री के रूप में जन्मा । नाम प्रीतिमती रखा गया। महाराज जितशत्रु ने पुत्री के युवा होने पर स्वयंवर पद्धति से उसका विवाह करने का निश्चय किया। दूर-दूर के राजे-महाराजे, राजकुमार आमंत्रित किए गए । स्वयंवर मंडप में राजकुमार अपराजित भी आया। प्रीतिमती ने उसके गले में वरमाला डाल दी। कुछ दिन श्वसुरगृह रहकर वह अपनी पत्नी के साथ सिंहपुर आ गया। माता-पिता बड़े प्रसन्न हुए। मनोगति व चपलगति के जीव भी माहेन्द्र देवलोक से च्यवकर अपराजित के सूर और सोम नाम से अनुज बने । अपराजित ने राजा बनने के बाद राज्य का कुशलता से संचालन किया। अपने पुत्र पद्मनाभ को राज्य देकर अपनी पत्नी व बंधु द्वय के साथ दीक्षा ली। अंत में समाधि मृत्यु प्राप्त कर चारों ग्यारहवें आरण देवलोक में देव बने। सातवां व आठवां भव भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर में श्रीषेण राजा राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम श्रीमती था। अपराजित का जीव च्यवकर रानी के उदर में आया । नाम रखा गया शंख। उधर प्रीतिमती का जीव अंग देश की चंपा नगरी के राजा जितानि के राजमहल में पुत्री रूप में जन्मा। उसका नाम यशोमती रखा गया। पूर्व जन्म के बंधु सूर और सोम भी यशोधर व गुणधर नाम से श्रीषेण के पुत्र बने। एकदा सीमावर्ती लोगों ने आकर पुकारा कि महाराज ! हम लुटे गये । पल्लिपति समरकेतु को शत्रु का सहयोग है, वह हम सबको लूट रहा है, मार रहा है ।यदि तुरन्त ध्यान नहीं दिया गया तो राज्य तहस-नहस हो जाएगा।' सुनकर राजा क्रुद्ध हो उठा। तत्काल सेना को आदेश दिया और स्वयं भी युद्ध के लिए तैयार होने लगे। राजकुमार शंख को जब ज्ञात हुआ तो आग्रहपूर्वक पिता के स्थान पर वे स्वयं चल पड़े। सीमावर्ती क्षेत्र में भयंकर युद्ध हुआ। समरकेतु के अनेक साथी
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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