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भगवान श्री अरनाथ/११७
विवाह और राज्य
बाल लीला करते हुए बालक अरकुमार ने जब तारुण्य में प्रवेश किया तो राजा सुदर्शन ने सर्वांग सुन्दर अनेक राजकन्याओं से उनकी शादी की । त्रिज्ञानधारी भगवान् अरनाथ ने अभी भोगावली कर्मों को शेष मान कर विवाह से इन्कार नहीं किया।
पुत्र को योग्य समझ कर पिता ने राज्य सौंपा तथा स्वयं ने स्थविर मुनि के पास साधुत्त ग्रहण किया। अरनाथ कुछ वर्षों तक मांडलिक राजा रहे, फिर चक्र रत्न उत्पन्न होने पर सार्वभौम चक्रवर्ती कहलाये। बत्तीस हजार राजा चक्रवर्ती अरनाथ की सेवा में अपने को कृतार्थ मानते थे। दीक्षा
लम्बे समय तक चक्रवर्ती पद भोग कर चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम होने पर संयम के लिए उद्यत बने । अपने उत्तराधिकारी सुयोग्य पुत्र अरविन्द को राज्य सौंपा और वर्षीदान देकर संयम लेने की घोषणा की। उनकी चारित्र ग्रहण करने की बात ने कइयों को आश्चर्यचकित कर दिया और अनेक विरक्त भी हो गये। __ मिगसर शुक्ला एकादशी के दिन भगवान् सहस्राम्र वन में पधारे। विशाल जनसमूह व अनगिनत देव गणों के बीच एक हजार राजाओं के साथ उन्होंने संयम ग्रहण किया तथा दूसरे दिन राजपुर नगर में अपराजित राजा के यहां परमान्न से पारणा किया।
प्रभु के छद्मस्थ काल के बारे में कई मत हैं, कहीं-कहीं दीक्षा के बाद तीन वर्ष छद्मस्थ काल के माने हैं और कई जगह मात्र तीन अहोरात्री छद्मस्थ काल की मानी गई हैं। भगवान् की केवल-महिमा देवेन्द्रों ने दूर-दूर तक फैलाई। प्रथम समवसरण में ही बड़ी संख्या में लोग उपस्थित हो गये थे तथा प्रथम प्रवचन में ही तीर्थ स्थापना हो गई। पहले चक्रवर्ती होने के नाते जनपद में उनका अमिट प्रभाव था। अतिशययुक्त सर्वज्ञता होने से प्रभु सबकी आस्था के केन्द्र बन गये। निर्वाण
अघाती कर्मों का अन्त निकट देखकर भगवान् ने एक हजार मुनियों के साथ सम्मेदशिखर पर अनशन किया। शुक्ल ध्यान के चौथे चरण में पहुंच कर उन्होंने योग मात्र का निरोध कर दिया। शैलेशी अवस्था में अवशिष्ट समस्त प्रकृतियों को क्षय करके सिद्धत्व को प्राप्त किया। प्रभु का परिवार
० गणधर ० केवलज्ञानी
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