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________________ (१५) भगवान् श्री धर्मनाथ --226 तीर्थकर गोत्र का बंध धातकी खंड की पूर्व विदेह के भरत विजय में भदिदलपुर नामक समृद्ध नगरी थी। उसके पराक्रमी राजा सिंहरथ ने धर्मगुरुओं से जब सुना कि योद्धाओं को जीतना आसान है, किंतु आत्मा पर नियंत्रण पाना कठिन है, खूखार शेर को पकड़ना आसान है, किंतु मन और इंद्रियों को जीतना अत्यंत कठिन है, तो उसके दिल में उथल-पुथल मचने लगी। स्वयं के पुरुषार्थ को अब राजा ने अध्यात्म की ओर मोड़ दिया। महलों में रहता हुआ भी वह एक संत का जीवन जीने लगा। अवकाश मिलते ही उसने अपने सुयोग्य उत्तराधिकारी को राज्य सोंपकर विमलवाहन स्थविर के पास संयम ग्रहण कर लिया। दीक्षा के बाद राजर्षि सिंहस्थ ने अपने प्रबल पराक्रम को सर्वथा आत्म शुद्धि के अनुष्ठान में जोड़ दिया। विचित्र तप, विचित्र कायोत्सर्ग और विचित्र ध्यान के मार्ग से कर्मों की महान् निर्जरा की और तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। अन्त में आराधक पद पाकर अनुत्तर विमान के वैजयंत स्वर्ग में वे अहमिन्द्र देव बने। जन्म अहमिन्द्र पद की आयु क्षीण होने पर उनके जीव ने वहां से च्यवकर रत्नपुर नगर के राजा भानु की महारानी सुव्रता की पवित्र कुक्षि में अवतरण लिया। महारानी को चौदह महास्वप्न आए। सबको विदित हो गया कि अपने यहां त्रैलोक्य के आराध्य, विश्व की महान् विभूति पैदा होने वाली है। महारानी सुव्रता विशेष सजगता से गर्भ का पालन करने लगी। गर्भकाल पूरा होने पर माघ शुक्ला तृतीया के दिन मध्य रात्रि में प्रभु का प्रसव हुआ। भगवान् के जन्म से मानव मेदिनी में अपूर्व उत्साह छा गया। राजा भानु ने देवेन्द्रों द्वारा किये गये उत्सव के पश्चात् जन्मोत्सव प्रारम्भ किया। उस महान् उत्सव से दूर-दूर के लोगों को प्रभु के जन्म का पता लग गया। नामकरण उत्सव में जनपद के अनगिनत लोग सम्मिलित हुए। राजकुमार को देखकर सभी चकित थे। राजा भानु ने कहा- ' राजकुमार जब गर्भ में था,
SR No.022697
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumermal Muni
PublisherSumermal Muni
Publication Year1995
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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