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भगवान् श्री अनन्तनाथ/९७
और भण्डार खोल दिये। जो भी मांगने आये, उन्हें दिल खोलकर दान दिया । दूर-दूर के लोग भगवान् के जन्मोत्सव को देखने आए। विवाह और राज्य
नामकरण के दिन राज्य के कोने-कोने से लोग नवजात राजकुमार के दर्शनार्थ पहुंचे। राजा सिंहसेन ने सबको संबोधित करते हुए कहा- 'इसके गर्भकाल में हम लोगों ने बहुत बड़ी विजय प्राप्त की है, सैन्य बल में हम से भी बड़े राजा के साथ इस बार संघर्ष था, किंतु हमारी सेना में अपरिमित बल जाग पड़ा। मैं भी मानो अनन्तबली बन गया और हमें स्थायी विजय प्राप्त हो गयी, अतः बालक का नाम 'अनन्तकुमार' रखा जाए। सभी लोगों ने बालक को अनन्तकुमार नाम से पुकारा।
राजकुमार अनन्त की बाल्यावस्था मनोरंजन में बीती। वे अपनी बाल-सुलभ क्रीड़ाओं से न केवल बाल सखाओं का ही मनोरंजन करते, अपितु राजमहल को पुलकित बनाये रखते । क्रमशः उन्होंने तारुण्य में प्रवेश किया। उनमें विरक्ति का भाव जाग पड़ा, किन्तु महाराजा सिंहसेन ने आग्रहपूर्वक अनेक राजकन्याओं से उनका विवाह कर दिया।
राजा ने राज्य कार्य में भी पुत्र का सहयोग लेना चाहा। आग्रहपूर्वक पुत्र का राज्याभिषेक किया। व्यवस्था संचालन की समस्या का हल संतोषजनक हो गया, तब राजा सिंहसेन गृही-जीवन से निवृत्त होकर अणगार-धर्म की साधना करने लगे।
अनन्तकुमार अब राजा अनन्तनाथ बन चुके थे। जनता की सुख-सुविधा के बारे में वे सदा सजग रहते थे। उनके शासनकाल में सामाजिक एवं राजनैतिक व्यवस्थाएं धर्म-नीति से नियंत्रित थी। जनता को इतना सुख था कि लोग पूर्ववर्ती राजाओं को भूल चुके थे। लोगों के लिए तो अनन्तनाथ ही सब कुछ थे। दीक्षा
चारित्र मोहनीय का क्षयोपशम होने पर भगवान् अनन्तनाथ ने अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंपकर वर्षीदान दिया। निर्धारित तिथि वैशाख कृष्णा चतुर्दशी के दिन एक हजार भव्य पुरुषों के साथ वे सहस्राम्र नामक उपवन में आये। पंचमुष्टि लोच किया। देव और मनुष्यों की अपार भीड़ में उन्होंने सावध योगों का सर्वथा प्रत्याख्यान किया । दीक्षा के दिन उनके बेले का तप था। दूसरे दिन वर्धमानपुर में विजय राजा के वहां परमान्न (खीर) से पारणा किया। देवों ने पंच द्रव्य प्रकट करते हुए जनसाधारण को दान की गरिमा बतलाई।
तीन वर्ष तक भगवान् छद्मस्थ चर्या में साधना करते रहे। पूर्व संचित कर्मों की उदीरणा व निर्जरा करते हुए वे पुनः सहस्राम्र वन में पधारे। अशोक वृक्ष के नीचे ध्यानारूढ़ होकर उन्होंने क्षपक श्रेणी ली। घातिक कर्मों का क्षयकर अनन्त चतुष्टय को प्राप्त किया।