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(१२) भगवान् श्री वासुपूज्य
तीर्थंकर गोत्र का बन्ध
अर्धपुष्कर द्वीप के पूर्व विदेह की मंगलावती विजय की रत्नसंचया नगरी मे राजा पद्मोत्तर ने इस तत्त्व को क्षणभर के लिए विस्मृत नहीं किया- ‘संसार अनित्य है।' अतुल सम्पत्ति व विपुल भोग सामग्री पाकर भी वे कभी उन्मत्त नहीं हुए। वे सदैव अध्यात्म व आत्म-विकास के बारे में सोचते रहते थे। ज्योंही उन्हें अवकाश मिला, अपने पुत्र को राज्य सौंपकर आचार्य वजनाभ के पास दीक्षित हो गए।
साधना में पदमोत्तर मुनि अत्यधिक सजग थे। विशेष कर्म-निर्जरा के बीस स्थानकों का उन्होंने मनोयोगपूर्वक सेवन किया था। कर्मों की महान निर्जरा होने से पद्मोत्तर मुनि ने तीर्थंकर गोत्र का बन्ध किया तथा वहां से समाधिपूर्वक मरकर 'प्राणत' देवलोक में देव बने । जन्म
देवयोनि भोगकर भगवान् के जीव ने भरत क्षेत्र की समृद्ध नगरी चम्पा के सम्राट् श्री वसुपूज्य की महारानी जयादेवी की कुक्षि में अवतरण लिया। महारानी ने स्वप्न में चौदह महादृश्य देखे । स्वप्न पाठकां से पूछने पर ज्ञात हुआ कि हमारे घर में तीर्थंकर पैदा होने वाले हैं। सब रोमांचित हो उठे और प्रभु के जन्म की व्यग्रता से प्रतीक्षा करने लगे। __गर्भकाल पूरा होने पर फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी की मध्य रात्रि में बिना किसी बाधा व पीड़ा के भगवान् का जन्म हुआ।
चौसठ इन्द्र मिलकर भगवान् के नवजात शरीर को पंडुक वन के शिलापट्ट पर ले गए, जन्म अभिषेक किया तथा विभिन्न प्रकार से अपना हर्ष प्रकट करके वापिस यथास्थान भगवान् के नवजात शरीर को स्थापित किया।
राजा वसुपूज्य ने पुत्र प्राप्ति की अपार खुशी में दिल खोलकर उत्सव किया। याचकों को दान दिया। __नामकरण के दिन बड़ी संख्या में बुजूर्ग लोग आये थे। बालक को देखकर सबने कहा- 'सम्राट् के सभी गुणं इसमें मौजूद हैं। आप अमर रहें, आपका नाम