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भगवान् श्री श्रेयांसनाथ / ८५
किया । श्रेयांसकुमार ने राजा बनने के बाद राज्य का संचालन सुचारू रूप से किया। उनके राज्य-काल में लोग अनैतिक कार्यों से सदैव बचते रहे । व्यवस्था ऐसी कर दी गई थी कि अनैतिक बनने का प्रसंग ही नहीं रहा । दीक्षा
चारित्र मोहनीय कर्म का प्रबल क्षयोपशम निकट समझ कर प्रभु ने अपने उत्तराधिकारी को राज्य सौंप कर वर्षीदान दिया। श्रेयांस के प्रति आस्था रखने वाले व्यक्ति उनकी विरक्ति को देखकर विरक्त हो गये थे और उनके साथ दीक्षा लेने को तत्पर हो उठे। निश्चित तिथि फाल्गुन कृष्णा त्रयोदशी को प्रभु सुखपालिका पर बैठकर जनसमूह के साथ उद्यान में आये, पंचमुष्टि लोच किया तथा अशोकवृक्ष के नीचे एक हजार दीक्षार्थी व्यक्तियों के साथ सामायिक चारित्र ग्रहण किया। दूसरे दिन सिद्धार्थ पुर नगर में राजा नंद के यहां परमान्न (खीर) से पारणा किया।
दो मास तक प्रभु छद्मस्थ अवस्था में विचरते रहे । परीषहों को सहन करते हुए उन्होंने ध्यान और स्वाध्याय से कर्मों की महान् नि र्जरा की। माघ कृष्णा अमावस्या के दिन शुक्ल ध्यान से क्षपक श्रेणी ली, घाती-कर्मों को क्षय करके कैवल्य को प्राप्त किया। प्रथम प्रवचन में ही तीर्थ की स्थापना हो गई थी, बड़ी संख्या में लोगों ने साधु-श्रावक के व्रतों को ग्रहण किया ।
आर्य जनपद में प्रभाव
भगवान् श्रेयांस का धार्मिक प्रभाव आर्य जनपद में अप्रतिहत था। जनपद के अमीर और गरीब लोगों में वे एक समान आस्था के केन्द्र थे । तत्कालीन राजाओं पर भी उनका अमिट प्रभाव था ।
एक बार भगवान् श्रेयांसनाथ विचरते-विचरते पोतनपुर पधारे। उद्यान में ठहरे। राजपुरुष ने अर्धचक्री प्रथम वासुदेव श्री त्रिपृष्ठ को प्रभु के आगमन की सूचना दी। सूचना पाकर वासुदेव त्रिपृष्ठ इतने हर्ष विभोर हुए कि सूचना देने वाले को उन्होंने साढ़े बारह करोड़ मुद्रा का दान देकर अपना हर्ष प्रकट किया तथा तत्काल अपने ज्येष्ठ भ्राता बलदेव अचल के साथ आकर प्रभु के दर्शन किये। ये इस अवसर्पिणी के प्रथम वासुदेव व प्रथम बलदेव थे ।
सत्तासीन व्यक्तियों से लेकर सेवाधीन व्यक्तियों तक सब प्रभु के चरणों में परम उल्लास के साथ आते रहते थे ।
निर्वाण
निर्वाणकाल निकट समझकर एक हजार मुनियों के साथ सम्मेद शिखर पर आपने अनशन किया। एक मास के अनशन में उन्होंने मुक्ति को प्राप्त किया ।