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प्रकाशकीय
किसी भी धर्म/दर्शन को जानने के लिए उसकी परम्परा को जानना अनिवार्य है। वर्तमान का प्रत्येक पल अतीत के प्रति कृतज्ञ होता है।
जैन परम्परा में तीर्थंकर से ऊँचा कोई स्थान नहीं। नमस्कार महामत्र तक में सिद्धों से पहले जिन्हें नमस्कार किया जाता है, वे तीर्थंकर ही हैं । तीर्थंकर अनंत ज्ञान, दर्शन और चारित्र के धनी तथा अध्यात्म युग के अनन्य प्रतिनिधि होते हैं।
किसी भी तीर्थंकर की परम्परा का अन्य तीर्थंकर विशेष की परंपरा के साथ आबद्ध नहीं होना तीर्थंकरों की स्वतंत्र व्यवस्था का द्योतक है। आश्चर्य होता है कि चौबीस तीर्थंकरों में से किसी भी तीर्थंकर ने अपने पूर्व तीर्थंकर की व्यवस्था या ज्ञान से न तो कुछ प्राप्त किया और न उसे परम्परा स्वरूप उत्तरवर्ती तीर्थंकरों को ही कुछ दिया। सभी तीर्थंकरों की अपनी परम्परा और अपना शासन था, जो पूर्ववर्ती व उत्तरवर्ती तीर्थंकरों से भिन्न था।
जैन परम्परा के मूल स्रोत प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभ थे। उनके पश्चात् एक के बाद एक तीर्थंकर होते हुए रामायण काल में बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रत
और महाभारत काल में बाईसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि हुए। इन सभी का काल प्रागऐतिहासिक है। कई अरिष्टनेमि को ऐतिहासिक मानते हैं। तेइसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्व और चौबीसवें तीर्थंकर भगवान् महावीर ऐतिहासिक पुरूष हैं । वर्तमान जैन शासन की परम्परा भगवान् महावीर से सम्बन्धित है। जैन ग्रन्थों में प्रत्येक तीर्थंकर का इतिहास सविस्तर उपलब्ध है।
गणाधिपति पूज्य गुरूदेव व आचार्य श्री महाप्रज्ञ के विद्वान् शिष्य मुनि श्री सुमेरमलजी (लाडनूं) ने “तीर्थंकर चरित्र" पुस्तक के माध्यम से चौबीस तीर्थंकरों के जीवन-तथ्यों को सरल एवं सहज भाषा में प्रस्तुत कर प्रत्येक पाठक को तीर्थंकरों के जीवनवृत्त की झलक प्रस्तुत करने का जो प्रयास किया है, वह अत्यन्त ही प्रशंसनीय एवं महत्त्वपूर्ण है। सीधी-सादी भाषा में कहानी के रूप में सृजित इस कृति के अध्ययन से जैन-अजैन सभी सुधी पाठक ज्ञानार्जन कर समान रूप से लाभान्वित होंगे, इसी शुभाशंसा के साथ पुस्तक का पंचम संस्करण प्रकाशित कर जैन विश्व भारती गौरव का अनुभव कर रही है। दिनांक १६-४-१९९५
ताराचन्द रामपुरिया जैन विश्व भारती, लाडनूं (राजस्थान)
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