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यहां इससे जनमत की पुष्टि होती है। और भी, 'लौह शास्त्र' का प्रणेता 'मुनि नागार्जुन' है। मुनि शब्द से 'जैन मुनि' का अर्थ अधिक युक्तियुक्त है। अतः मेरे मत में अलबेरुनी द्वारा निर्दिष्ट नागार्जुन का रसविद्या पर महान् ग्रंथ यही होना चाहिए, जो कालक्रम से अब लुप्त हो चुका है। उसका सार चक्रपाणि और रसेन्द्रचिंतामणि कार ने दिया है । दक्षिण में नागार्जुन
जैन नागार्जुन के संबंध में दक्षिण में, विशेषतः कर्णाटक में, एक किंवदंती प्रचलित है। वहां नागार्जुन को पूज्यपाद की छोटी बहन का पुत्र अर्थात् भानजा बताया गया है। उसके पिता का नाम गुणभट्ट था। इस नागार्जुन ने स्वर्णसिद्धि (सोना बनाने की सफलता) प्राप्त की थी। उन्होंने वनस्पति शास्त्र मे अच्छा ज्ञान प्राप्त किया था। पूज्यपाद पैरों में लेपकर गगन-गमन किया करते थे। संभवतः नागार्जुन ने भी इसे सीखा था । नागार्जुन मंत्र, तंत्र और रस विद्या के सिद्ध माने जाने लगे। नागार्जुन की रसगुटिका चुरा ली गयी । (देखें, नाथूराम प्रेमी, जै.सा.इ., पृ. 529, टि.2)। आयुर्वेद में नागार्जुन -
आयुर्वेदग्रन्थों में नागार्जुन के संबंध में निम्न प्रमाण मिलते हैं(1) सुश्रुतसंहिता के प्रसिद्ध टीकाकार 'डह्मण' ने लिखा है -
'यत्र यत्र परोक्षे लिट्प्रयोगस्तत्र तत्रैव प्रतिसंस्कर्तृ सूत्रं ज्ञातव्यमिति ; प्रतिसंस्कर्ताऽपीह नागार्जुनएवं' (सु. सू. 1/2 पर टीका में।
अर्थात् जहां जहां 'लिट्' भूत ) काल का प्रयोग मिलता है, वहां उसे प्रतिसंस्कर्ता का वचन समझना चाहिए। यहां नागार्जुन ही प्रतिसंस्कर्ता है। इस प्रसंग में डह्मण ने 'अपि' 'इह' और 'एव' शब्दों द्वारा निश्चयपूर्वक निःसंदिग्ध रूप से नागार्जुन को ही सुश्रुतसंहिता का प्रतिसंस्कार करने वाला बताया है। (2) 'माधवनिदान' की 'मधुकोष' टीका के लेखक 'विजयरक्षित' ने नागार्जुन कृतं 'आरोग्य मंजरी' से पाठ उद्धृत किये हैं - 'आरोग्यमञ्जर्यां नागार्जुनोऽप्याहउद्गारेऽपि विशुद्धतामुपगते कांक्षा न भक्तादिषु स्निग्धत्वं वदनस्य सन्धिषु रुजा
कृत्वा शिरोंगौरवम् । . मन्दाजीर्ण रसे तु लक्षणमिदं तत्रातिवृद्ध पुनहल्लास-ज्वर-मूर्छनादि च भवेत्
___ सर्वामयक्षोभणमिति ।।' .. यह वचन ‘अग्निमांद्यादिनिदान' प्रकरण (6) में अजीर्ण के प्रसंग में रसशेषाजीणं के संबंध में उद्धृत किया गया है। नागार्जुन ने 'आरोग्यमंजरी' नामक कोई ग्रंथ भी लिखा था। वह अब अप्राप्त है।
त्रिवेन्द्रम से 1928 में 'भदन्त नागार्जुन' प्रणीत 'रसवैशेषिकसूत्रम्' प्रकाशित
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