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अत्राऽस्मिन् शास्त्रे श्री नागार्जुनाचार्येण सर्वेऽप्यनुभूता व योगा उक्ताः ।
लोक . बी टीका 'श्री नाग र्जुनाचार्य चरणाप्तप्रसादात् सफलो योगोऽयमास्ताम् ।' (पलो. 50 की टीका ) 'आश्चर्याण्येव रत्नानि तेषां माला द्धति: । सा नागार्जुनाचायेंग बिर चिता गुम्फिना। कथंभूना ? अनुभवसिद्धा ।' । श्लोक 10C की टीक)
जैन-परम्परा में आचार्य पद सर्वोच्न होता है। आचार्य पद पर असीन व्यति चतुर्विध जैन संघ (साधु. साध्वी श्रावक, श्राविका का संचालन करता है !
फिर दो ग्रथ एक ही विषय पर एक ही व्यक्ति द्वारा लिखा जाना अलपट:--सा लगता है। गुरु परंपरा का सम्मान और सर्वोपरि आदर जैन-परम्परा में प्रचलित डा है। जैन-तांत्रिक विद्या में इसे सर्वाधिक महत्त्व दिया जाता है। अतः यानरत्नमाला ग्रंथ का प्रणेता जैन होना चाहिए । गुणाकर जैन श्वेतांबर साधु था। संभवत: इमी नागार्जुन की परम्परा का रहा हो। ये दोनों विद्वान् सौराष्ट्र क्षेत्र के निवासी थे। गुणाकर ने अनेक स्थलों पर गुजराती शब्दों में स्पष्ट करण दिया है ।
योगरत्नमाला के विषय -- वशीकरण, विद्वेषण, उच्चाटन, दर्पण मे रूपदर्शन, चित्ररोदनान्तर्धान, पुरुषान्तर्धान (अदृशीकरण ), को (कु! तूहल (कौतुक), अग्निम्तम, जलस्तंभ, पिशाचीकरण, 'लोमश तन', शस्त्रस्तंभ, देशांतर गमन, अकालग्रहण (सोमसूर्यग्रहण), आवेश िवधान, 'विषप्रयोगविधान', 'विषापहर', 'विषम ज्वापहार', भूतनाशन (ग्रहमोक्ष)', ज्योति दर्शन, अजन, चद्रज्योत्स्नाधिक्य, बन्ध्यापुत्रजन्म, व्याघ्रदर्शन, मनुष्यदर्शन, 'वंध्याकरण', 'लिंगवृद्धिदाढ्यकरण', 'शुक्ररतभन', यानिशूलकरण-मोक्ष', 'कुष्ठ-करण', काकघातोद्वेग, गोहननजीवन, 'गर्भस्त मोक्षण', दीपर-निर्वाण, वृश्चिकविषापहार', मेघः दि जलस्तंभ, पटान्त (पटगत) चित्रादर्शन, प्रतिमाकर्षण, शस्त्रशुक्त्याकर्षण, 'कुचनाश', भगसंकोचन, भग रक्तप्रवाह, रात्रिमा धूप, दीप से कणीकरण, 'अन्धीकरण-बोध', कलहनिधान, अन्तर्धान, मृन्मय गजमद, द्रुमफलपुष्पाकर्षण, फलपुष्पापादन, दुग्ध का घृतापादन, जल का तक्रीकरण, तक्र का दधिकरण, मृत सजाउन, 'नारीपुरुषगुह्यबंध और मोक्ष', आसनबंध, अधकार में ज्योतिदर्शन | स्पष्ट है कि याग. रत्नमाला में अनेक औषधप्रयोग भी दिए हैं। तांत्रिक और औषधप्रयोगों के लिए
1 मुनि कांतिसागर इसमें शंका मानते हैं
"तन्त्रविषयक योगरत्नमाला' और 'साधनमाला' वगैरह कुछ ग्रन्थों में पर्याप्त भाव-साम्य है; पर जहां तक भाषा का प्रश्न है, इन ग्रन्थों के रचयिता नागार्जुन (बौद्ध ही जान पड़ते हैं; क्योंकि 'सिद्धनागार्जुन' (जैन) के समय जैन सप्रदाय में अपने आप को संस्कृत भाषा में व्यक्त करने की प्रणाली ही नहीं थी।"
(खंडहरों का वैभव, पृ:00)
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