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________________ में हुई चतुर्थ बौद्ध प्रतिष्ठित हुआ । बताया जाता है | ( श्रीशैल ) या बराड़ के निवासी थे । जैन परम्परा में जिस नागार्जुन का वर्णन प्राप्त होता है वह पादलिसूरि के शिष्य थे । इसको भी ‘सिद्धनागार्जुन' के नाम से जाना जाता है, क्योंकि इन्होंने तंत्र-मंत्र और रसविद्या में सिद्धियां प्राप्त की थीं । इनके जीवनवृत्त पर इन जैन ग्रंथों में विवरण प्राप्त होता है - 'प्रभावकचरित्र, विविधतीर्थकल्प, प्रबन्धकोष प्रबन्धचितामणि, 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' और पिण्डविशुद्धि की टीकाएं । इन ग्रन्थों के विवरणों से ज्ञात होता है कि नागार्जुन 'सौराष्ट्र' प्रांत के अन्तर्गत 'ढंकगिरि' के निवासी और आचार्य ' पादलिप्तसूरि के शिष्य थे । पादलिप्तसूरि का काल यद्यपि ईसवीय पहली शती है, तथापि उन्होंने दीर्घ आयु प्राप्त की थी- ऐसा उल्लेख मिलता है । अत: दूसरी और तीसरी शती में उनके शिष्य नागार्जुन हुएऐसा मानने में कोई आपत्ति प्रतीत नहीं होती । अस्तु, नागार्जुन पादलिप्तसूरि के शिष्य होने की बात अत्यन्त प्रसिद्ध है, इसे दृष्टि- तिरोहित नहीं किया जा सकता । पादलिप्तसूर रसायन, मंत्र-तंत्र और वानस्पतिक ज्ञान में निपुण थे । वे पादलेप करके आकाशगमन करते थे। यह सिद्धि नागार्जुन ने भी उनसे प्राप्त की थी। पादलिप्तसूरि को 'प्रतिष्ठानपुर ' ( वर्तमान औरंगाबाद जिले में पैठन, महाराष्ट्र ) के सातवाहन राजा हाल की सभा में सम्मान प्राप्त हुआ था । नागार्जुन का भी किसी 'सातवाहन राजा' से संबंध और उस पर विशिष्ट प्रभाव सूचित होता है । पादलिप्त ने पाटलिपुत्र के मुरुण्ड राजा की मस्तकपीड़ा को मंत्र-शक्ति से ठीक किया और वह प्रतिष्ठानपुर ( पैठन ) में आकर रहने लगा । संगीति का नेतृत्व किया था। इनके समय में महायान - मत सिद्ध नागार्जुन नालंदा से संबंधित थे, और इनको सरहपा का शिय इनका उल्लेख चौरासी सिद्धों में मिलता है । ये मूलतः दक्षिण जैन साहित्य में ऐतिहासिक ग्रंथों के रूप मैं - मेरुतुरंग प्रणीत 'प्रबंधचितामणि' (1306 ई.) और उसके अनुकरण पर लिखे राजशेखर कृत 'प्रबंधकोश' ( 1349 ई.) का स्थान महत्वपूर्ण है । इन ग्रन्थों में जैन आचार्यों, संतों और महापुरुषों के जीवनवृत्त और उनसे संबंधित आख्यान संकलित हैं । 'प्रबंध चितामणि' के 'नागाजुर्नोत्पत्ति-स्तम्भनकतीर्थावतार प्रबंध' में नागार्जुन के संबंध में बताया गया है - ' ढंक' के राजा 'रणसिंह' की 'भूपाल' नामक पुत्री थी । वह रूपवान् नागबाला थी । उस पर 'वासुकि ' मोहित हो गया । तब उनसे 'नागार्जुन' नामक पुत्र का जन्म हुआ । अनेक प्रकार की औषधियों के प्रभाव से वह सिद्धपुरुष बन गया । शातवाहन ( या शालिवाहन) राजा के 'कलागुरु' के पद पर आसीन होकर उसने उत्तम प्रतिष्ठा प्राप्त की। पादलिप्तपुर में गगनगामिनी विद्या के जानकार पादलिप्त आचार्य रहते थे । वह उनका शिष्य बन गया । उनसे उसने पादलेप करके आकाश में घूमने की विद्या प्राप्त की। इसके बाद सिद्धि प्राप्त कर नागार्जुन को पार्श्वनाथ के समक्ष कोटिवेधी रसके निर्माण की विधि बतायी। उसने किर्तिपुर से रत्नमय पार्श्वनाथ की मूर्ति [ 74 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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