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प्रध्याय-4
जैन आयुर्वेद के विद्वान्, ग्रंथकार और उनके ग्रंथ
'पादलिप्तसूरि ( प्रथम द्वितीय शती)
कहा जाता है कि इनके जन्म का नाम नगेन्द्र, पिता का नाम फुल्ल और माता का नाम प्रतिमा था। साधु वनने पर ये पादलिप्त कहलाये । 'प्रभावकचरित' के अनुसार इनका जन्म अयोध्या के विजयब्रह्म राजा के काल में एकं श्रेष्ठिकुल में हुआ था । आठ वर्ष की आयु में विद्याधरगच्छ के अाचार्य आर्य नागहस्ती से इन्होंने दीक्षा
और दसवें वर्ष में पट्ट पर बैठे। ये मथुरा में रहते थे । इनका काल वि. सं. 151-219 (94-162 ई.) माना जाता है। 'विशेषावश्यक भाष्य' और 'निशीथचूर्णी' में भी इनका उल्लेख मिलने से इनका काल पर्याप्त प्राचीन ज्ञात होता हैं । 1
इनका जीवनवृत्त, प्रभावकचरित्र, प्रबंधकोष और प्रबंधचितामणि में विस्तार से मिलता है ।
उद्योतनकृत 'कुवलयमाला' में लिखा है कि प्रतिष्ठान (पैठण) के सातवाहन राजा हाल की सभा में पादलिप्त रत्नहार के समान सुशोभित हुए थे -
'णिम्मलमणेण गुणगरुयएणं परमत्थरयणसारेण । पालित्तएण हालो हारेण च सहइ गोट्ठी ॥
( कुवलयमाला - प्रारंभ )
- 'हाल' द्वारा संकलित 'गाथासप्तशती' (गाहा सत्तसई) में कुछ गाथाएं पादलिप्त ( प्राकृत में 'पालित' ) द्वारा रचित मानी गयी हैं । 'वृहत्कथा' का प्रयोग कवि 'गुणाढ्य' भी इनका समकालीन था ।
तरंगवती, ज्योतिषकरंडक प्रकीर्णक, निर्वाणकालिका और प्रश्नप्रकाश - पादलिप्त के ग्रन्थ हैं 1
आगमों की चूणियों से इनके 'कालज्ञान' नामक ग्रन्थ की रचना का पता चलता है । पादलिप्तसूरि सिद्धविद्या' और रसायन -कर्म में निपुण थे । प्रसिद्ध है कि पादलिप्त को गुरु से एक ऐसे लेप का ज्ञान मिला था जिसे पैरों पर लगाने से आकाश में गमन करने की अदभुत शक्ति प्राप्त होती थी । इसी कारण इनका नाम 'पादलिप्त' पड़ा ।
"आचार्य पादलिप्तसूरि ने 'गाहाजुअलेण' से शुरू होने वाले 'वीरथम' की रचना की है और उसमें सुवर्णसिद्धि तथा 'व्योमसिद्धि' (आकाशगामिनीविद्या) का विवरण गुप्त रीति से दिया है। यह स्तव प्रकाशित है।
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डा. नेमिचंद्र शास्त्री, प्राकृत भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास, पृ.451 2 जैन साहित्य का वृहद् इतिहास, भाग 5, पृ. 206
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