________________
अध्याय-3
उग्रादित्याचार्य से पूर्ववर्ती आचार्य
समंतभद्र
( ई. ४थी से ५वीं शती )
दक्षिण की दिगम्बर - आचार्य - परम्परा में समंतभद्र का नाम विशेष रूप से स्मरणीय है । ये प्रसिद्ध वादी, न्याय-व्याकरण- वैद्यक - सिद्धांत में निष्णात और दार्शनिक थे । ये पूज्यपाद से पूर्ववर्ती थे । 'कर्नाटक में इस महान् तार्किक का अवतरण न केवल जैन इतिहास में किन्तु समस्त - दार्शनिक साहित्य के इतिहास में एक स्मरणीय युगप्रवर्तक रूप में माना जाता है ।
पूज्यपाद (देवनंदि) ने जैनेन्द्र-व्याकरण में इनके व्याकरण संबंधी मत को उद्धृत किया है । परन्तु इनका यह व्याकरणग्रंथ अनुपलब्ध है ।
भद्रबाहु, समन्तभद्र, पूज्यपाद, अकलंक आदि आचार्यों को दक्षिण के प्रसिद्ध द्रविड संघ के नंदिसंघ का बताया जाता है ।
'आप्तमीमांसा' की एक हस्तप्रति के अनुसार समन्तभद्र उरगपुर ( वर्तमान उरेयूर, तामिलनाडु) के राजकुमार थे । 'जिनस्तुतिशतक' के एक पद्य से ज्ञात होता है कि इनका मूल नाम शांतिवर्मा था
8
श्रवणबेलगोला के चंद्रगिरि पर्वत पर स्थित पार्श्वनाथ मंदिर में लगे 'मल्लिषेण प्रशस्ति' शिलालेख ( सन् 1128 ) में कहा गया है कि इनको 'भस्मकव्याधि' हुई थी, जिसपर इन्होंने विजय पायी थी, पद्मावती देवी से उदात्तपद प्राप्त किया था, अपने मंत्रों से चंद्र-प्रभ की मूर्ति प्रकट की थी । कलिकाल में इन्होंने जैन धर्म को प्रशस्त बनाया, सब तरफ से कल्याणकारी होने के कारण (भद्र समन्ताद् ) ये 'समन्तभद्र' कहलाये - 'वन्द्यो भस्मक भस्मसात्कृतिपटुः पद्मावतीदेवतादत्तोदात्तपदः स्वमन्त्रवचन व्याहूत चन्द्रप्रभः । आचार्यः स समन्तभद्रगणभृद् येनेह काले कलौ जैनं वर्त्म समन्तभद्रमभवद् भद्रं समन्ताद्
मुहुः ।।'s
1 पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, दक्षिण भारत में जैन धर्म, पृ. 142
2 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य ' ( 5141140 )
8 पं. कैलाशचंद्र शास्त्री, दक्षिण भारत में जैन धर्म, पृ. 181
4 वीरशासन के प्रभावक श्राचार्य ( भा. ज्ञानपीठ ) पृ. 33
" जैन शिलालेख संग्रह, भाग 1, पृ. 102 पर यह शिलालेख छपा है |
] 38 ]