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कभी-कभी सर्प दंश स्थान को दाग देने या उस स्थान को काट देने या रोगी को रात भर जगाये रखने का उल्लेख भी मिलता है ।।
___ इसके अतिरिक्त बमी की मिट्टी, लवण और परिषेक आदि भी सर्पदंश में उपयोगी कहे गये हैं। सुवर्ण को विषनाशक माना गया है । सर्प से दष्ट व्यक्ति को सुवर्ण घिसकर उसका पानी पिलाते थे । साधु लोग सुवर्ण को श्रावकों से मांगकर या दीक्षा लेने से पूर्व स्थापित निधि में से निकालकर या योनिप्राभृत की सहायता से प्राप्त कर इसका प्रयोग करते थे। शल्य चिकित्सा
शल्य चिकित्सा का बहुत महत्व था। व्रणचिकित्सा भी सफलतापूर्वक की जाती थी।
जैन-आगमसूत्रों में दो प्रकार के काय-व्रणों का उल्लेख है-1 तद्भव और 2 आगंतुक । 'तद्भव' व्रणों में कुष्ठ, किटिभ, दद्र , विचिच्चिका (विचिका), पामा और गण्डालिया के नाम गिनाये गये हैं । खड्ग, कटक, स्थाणू (ठूठ), शिरावेध, सर्प या कुत्ते के काटने से उत्पन्न होने वाले व्रण-आगंतुक कहलाते हैं ।
फोड़े या पिड़िका को धोकर, साफ कर उन पर तेल, घी, चर्बी और मक्खन आदि लगाया जाता था । फोड़ों पर गाय, भैंस का गोबर लगाने का भी विधान है। बड़ आदि की छाल को वेदना शांत करने के लिए काम में लेते थे ।
गंडमाला, पिलग (पादगत गंडं-चूर्गी), अर्श और भगन्दर का शस्त्रकर्म किया जाता था। जैन साधुओं को गुदा और कुक्षि के कृमियों को अंगुली से निकालने का निषेध है।'
युद्ध में तलवार आदि से घायल होने पर व्रणों का व्रणोपचार किया जाता था। युद्ध के समय वैद्य औषध, व्रणपट्ट, मालिश का सामान, व्रण संहोरक तैल, व्रण-संहोरक चूर्ण, अतिपुराण घृत आदि लेकर चलते थे और आवश्यकता होने पर व्रणों को सीते भी थे।
1 निशीषभाव्य पीठिका 230
बही 394; पोषनियुक्ति 341, पृ. 129 प्र. 366, पृ. 134-अ., पिण्डनियुक्ति 48 । व्यवहार भाष्य 5189; अावश्यकचूर्णी पृ. 492-93 में विषमय लड्डू के खाने का ___ असर शांत करने के लिए वैद्य द्वारा सुवर्ण पिलाने का उल्लेख है । 4 निशीयभाष्य 311501 । निशीथसूत्र 3122-24; 12193; निशीथभाष्य 12-4199 6 निशीथभाष्य 1214201 निशीथसूत्र 3134
A-वही, 3140 8 व्यवहारभाष्य 51100 -103
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