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'कल्याणकारक' नामक ग्रन्थ में ऐसे सैंकड़ों प्रयोग उल्लिखित हैं, कुछ प्रयोग तो किन्हीं प्राचीन ग्रन्थों से उद्घृत किए गए हैं । कालान्तर में वह रसचिकित्सा सिद्धों और जैन भट्टारकों के माध्यम से उत्तरी भारत में भी प्रसारित हो गई और यहां भी रसग्रंथ रचे जाने प्रारम्भ हो गए । वस्तुतः रसचिकित्सा - सम्बन्धी यह देन दक्षिणवासियों की है, इसमें बहुलांश जैन - विद्वानों और आचार्यों का भाग है । इस प्रकार प्राणवाय की परम्परा अन्तर्गत अथवा बाद में अन्य कारणों से जैन यति-मुनियों, भट्टारकों और श्रावकों ने आयुर्वेद के विकास और आयुर्वेदीय ग्रन्थों की रचना में महान् योगदान किया । ये ग्रन्थ राजस्थान, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक, मद्रास आदि के हस्तलिखित ग्रन्थागारों में भरे पड़े हैं । दुर्भाग्य से इनमें से अधिकांश ग्रन्थ अप्रकाशित हैं और कुछ तो अज्ञात भी हैं । इनमें से कुछ काल - कवलित भी चुके हैं ।
4 जैन आयुर्वेद - साहित्य
समीक्षात्मक अध्ययन विभाग -
संक्षेप में, जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत आयुर्वेद - साहित्य के अध्ययन को हम दो भागों में बाँट सकते हैं
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प्रथम - जैन धर्म के आगम ग्रन्थों और उनकी टीकाओं आदि में आयी हुई आयुर्वेद - विषयक सामग्री का अध्ययन |
द्वितीय - जैन विद्वानों द्वारा प्रणीत 'प्राणावाय' संबन्धी ग्रंथ और आयुर्वेद सम्बन्धी स्वतंत्र ग्रंथ, टीकाएं और योगसंग्रह आदि ।
अपने इस शोध-अध्ययन में मैंने अग्रिम पृष्ठों में 'जैन आयुर्वेद साहित्य' के अन्तर्गत उपर्युक्त दोनों प्रकार के साहित्य का अध्ययन प्रस्तुत करने का प्रयास किया है ।
जैन - वैद्यक ग्रन्थ
जैन - वैद्यक-ग्रन्थों के अपने सर्वेक्षण से मैं जिस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं, उसके निम्न तीन पहलू हैं
एक- -जैन विद्वानों द्वारा निर्मित उपलब्ध वैद्यक साहित्य अधिकांश में मध्ययुग में ( ईसवीय 12वीं शताब्दी से 19वीं शताब्दी तक ) रचा गया था । कुछ ग्रन्थ दक्षिण में 7-8वीं शती के भी, दक्षिण के आन्ध्र और कर्नाटक क्षेत्रों में मिलते हैं, जैसे - कल्याणकारक आदि । कुछ दक्षिण के ग्रन्थ इससे भी प्राचीन रहे होंगे । परन्तु ये बहुत कम हैं । द्वितीय - उपलब्ध सम्पूर्ण वैद्यक - साहित्य में जैनों द्वारा निर्मित साहित्य उसके एक-तिहाई से भी अधिक है |
तृतीय - अधिकांश जैन वैद्यक ग्रन्थों का प्रणयन पश्चिमी भारत में, जैसे—–पंजाब, राजस्थान, गुजरात, कच्छ, सौराष्ट्र और कर्नाटक में हुआ है । कुछ माने में राजस्थान
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