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32 श्रागम - 11 अंग, 12 उपांग, 4 मूलसूत्र ( दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, अनुयोगद्वार, नन्दी सूत्र ), 4 छेदसूत्र (निशीथ, व्यवहार, वृहत्कल्प, दशाश्रु तस्कंध ), 1 आवश्यक सूत्र |
ऐसा माना जाता है कि प्राचीनतम श्रुतज्ञान 14 'पूर्वी' में समाहित था, जिसका महावीर ने अपने 11 गणधरों को उपदेश दिया था । कालक्रम से पूर्वों का श्रुतज्ञान लुप्त होता गया । अंत में इसका धारक एक गणधर रह गया, जिससे यह ज्ञानं छः पीढ़ियों तक चला । फिर विलुप्त हो गया ।
'प्राणावाय' संज्ञक पूर्व का ही दूसरा नाम 'आयुर्वेद' है । प्राणावाय का परिचय और उसकी प्राचीन परम्परा का पृथक् से विवेचन किया जायेगा | शौरसेनी श्रागम साहित्य
दिगम्बर सम्प्रदाय उपर्युक्त आगम साहित्य को प्रामाणिक नहीं मानता। उसके अनुसार' मूल आगम ग्रंथों का विच्छेद हो गया । केवल दृष्टिवाद का कुछ प्रश अवशिष्ट रहा । उसी श्रुतज्ञान के आधार पर धरसेनाचार्य के संरक्षण में पुष्पदन्त ने 'षट्खडागम' (प्रथम पांच खंड ही रचे), गुणधराचार्य ने 'कषायपाहुड ( कषायप्राभृत) और आचार्य भूतबलि ने षट्खंडागम के छठे खंड के रूप में 'महाबंध ' ( महाधवल ) की रचना की । ये ही दिमम्बर सम्मत आगमसूत्र हैं ।
पुष्पदन्त और गुणधर का काल विक्रम की प्रथम शताब्दी माना जाता है ।
दिगम्बर परम्परा में इनके अतिरिक्त आचार्य कुन्दकुन्द ई. प्रथम या द्वितीय शती) के ग्रंथ प्रवचनसार आदि तथा यतिवृषभ (वि. सं. 530-666 ) कृत 'तिलोयपत्ती' (त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) भी आगमों के अंतर्गत माने जाते हैं ।
3 ' प्राणावाय' जैन आयुर्वेद की परम्परा
आयुर्वेद शब्द 'आयु' और 'वेद' – इन दो शब्दों से मिल कर का अर्थ है जीवन और वेद का अर्थ ज्ञान । अर्थात् जीवन-प्राण या सम्बन्ध में समग्र ज्ञान आयुर्वेद से अभिहित किया जाता है ।
जैन आगम - साहित्य में चिकित्सा विज्ञान को 'प्राणावाय' कहते हैं । यह पारिभाषिक संज्ञा है । यह 'दृष्टिवाद' नामक अंग के अन्तर्गत एक 'पूर्ण' माना जाता है | जैन तीर्थंकरों की वाणी अर्थात् उपदेशों को 12 भागों में बांटा गया है । इन्हें जैन आगम में 'द्वादशांग' कहते हैं । इन बारह अंगों में अंतिम अंग 'दृष्टिबाद ' कहलाता है । यह अब अनुपलब्ध है ।
'स्थानांगसूत्र' (स्थान 4, उद्दे शक 1 ) की वृत्ति' में कहा गया है कि 'दृष्टिवाद' या 'दृष्टिपात' में दृष्टियां अर्थात् दर्शनों और नयों का ( मत-मतांतरों) का निरूपण किया जाता है -
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बना है । आयु जीवित शरीर के
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