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रा. प्रा. वि. प्र. उदयपुर स्थित हस्तप्रति (ग्रंथांक 1472) में प्रत्येक प्रकरण या पटल की श्लोक संख्या इस प्रकार हैइसमें कल 151 पद्य हैं। !- 16 श्लोक
2---22 श्लोक 3.- 32 श्लोक 4--- 39 श्लोक 5-- 34 श्लोक
6- 8 श्लोक इसका रचनाकाल सं. 1842 (1785 ई.) चैत्र शुक्ला 5, गुरुवार दिया है'संवदष्टादशे(18) वर्षे सागग(4) नेत्र 2) चाधिके । चैत्रे सिते च पञ्चम्यां गुरुवारे च ग्रन्थकृतः ।। 39।।' (ग्रंथांत) इसकी विषयवस्तु नवीन एवं शैली भिन्न है। अत: यह बहुत महत्वपूर्ण कृति है। व्याधिनिग्रह- सस्तबक
इसमें रोगों की चिकित्सा के अनुभूत योग संगृहित हैं। यह ग्रन्थ भी उपयोगी और विशिष्ट है ।
रा. प्रा. वि. प्र. जोधपुर में इसकी दो हस्तप्रतियां मैंने देखी हैं (ग्रथांक 4171, 4870), इस ग्रन्थ का निर्माणकाल सं. 1868 (1811 ई ) दिया है ।
मलूकचन्द (18वीं शती) यह जैन श्रावक थे। संभवतः इनका निवासस्थान बीकानेर क्षेत्र था। इनका काल 18वीं शती ई. माना जाता है। इनका विशेष परिचय नहीं मिलता । रचनाकाल और रचनास्थान का भी निर्देश नहीं दिया है।
इन्होंने फारसी के यूनानी चिकित्सा सम्बन्धी ग्रथ 'तिब्ब महाबी' का हिन्दी में 'वैद्यहुलास' नाम से पद्यानुवाद किया था। प्रथम फारसी के इस ग्रन्थ को उन्होंने सुना, फिर गुणीजनों को सुनाने हेतु भाषा में रचना की। उन्होंने स्वयं लिखा है
'श्रवणे प्रथमें सुनि लई, 'तिब सहाबी आहि । पाछे भाषा ही रची, गुनजन सुनिओ तांहि ।।3।। 'वैद्यहुलास' जो नाम धरि, कीयो ग्रन्थ अमीकंद ।
'श्रावककुल' पक्ष (जन्म) को, नाम 'मलूक सुचंद' ।।5।। 'राजस्थान में हिन्दी के हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज' भाग2में उद्धृत प्रति का लिपिकाल संवत् 1871 (1814 ई.) है। ग्रन्थ के अन्त में पुष्पिका दी है
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