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________________ इसलिए उसके 'पूर्व-ग्रंथों' का आकलन नहीं हो पाया। यह 'पाटलीपुत्र-वाचना' कहलाती है। दूसरी वाचना हेतु महावीर-निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ई. 300 से 313) आगमों को पुनः व्यवस्थित करने के लिए मथुरा में आर्य स्कन्दिल के नेतृत्व में मुनिसंघ का सम्मेलन बुलाया गया। कहते हैं, उस समय भी बारह वर्ष के दीर्घकालीन अकाल के कारण आगम ज्ञान नष्ट हो रहा था । अत: इस वाचना में स्मरण के आधार पर कालिक श्रुत के रूप में आगमों का पुनः संकलन किया गया, यह 'माथुगे वाचना' कहलाती है। इसी समय वलभी में नागार्जुनसूरि के नेतृत्व में भी एक मुनि-सम्मेलन हुआ था । इसमें भी स्मरण के आधार पर सूत्रों का संकलन हुआ। आर्य स्कंदिल और नागार्जुनसूरि के परस्पर पुन: नहीं मिल पाने से आगमों का वाचना-भेद बना रह गया। इसके 150 वर्ष बाद वीरनिर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद (ई. 453-466) वलभी में देवधिगणि क्षमाश्रमम के नेतृत्व में पुन: मुनि सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें पाठांतरों को शुद्ध कर माथुरी वाचना के आधार पर आगमों को लिपिबद्ध किया गया । दृष्टिवाद तो फिर भी सर्वथा नहीं मिल पाया । इस वाचना के समय 11 अंगों के अतिरिक्त अन्य ग्रंथ भी लिखे जा चुके थे। उस समग्र साहित्य को 'आगम-साहित्य' में अन्तनिहित माना गया । इस साहित्य के अन्तर्गत 11 अंग, 12 उपांग, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, ! 0 प्रकीर्णक और 2 चूलिका - इस प्रकार कुल 45 ग्रंथ सम्मिलित हैं। दृष्टिवाद को मानकर 6 ग्रंथ माने जाते हैं। ये सभी ग्रंथ अर्धमागधी भाषा में हैं । ये आगमग्रंथ गद्य और पद्य में मिलते हैं। इनकी भाषा में अर्धमागधी के साथ देशी भाषाओं का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। इन ग्रथों में दार्शनिक और सैद्धांतिक विषयों का विवेचन है। कहीं-कहीं दष्टांतों और कथानकों का आश्रय लिया गया है। इन आगम ग्रंथों पर नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीका-नामक चार प्रकार को व्याख्याएं मिलती हैं। ये सब प्राकृत भाषा में हैं। 'नियुक्ति' से तात्पर्य है सूत्र का निश्चयात्मक अर्थ। ये आर्या छंद में प्राकृत गाथाओं में विरचित हैं। ये संक्षिप्त व पद्यबद्ध हैं। इनकी रचना पाचवीं-छठी शती से पहले होने लग गयी थी। 'भाष्य साहित्य भी प्राकृत गाथाओं के रूप में आर्या छंद में लिखा गया है। इनका रचनाकाल चौथी-पांचवीं शती माना जाता है। निशीथ, व्यवहार और कल्प भाष्य का सबसे अधिक महत्व है। 'चूणि-साहित्य' गद्य में है। यह मिश्रित प्राकृत में हैं, यह संस्कृतमिश्रित प्राकृत है। इसमें तत्कालीन समाज व संस्कृति का अच्छा चित्रण हुआ है। 'टीका- ग्रथों' में से अधिकांश संस्कृत में हैं। कुछ प्राकृत में हैं। वलभी वाचना से पहले नियुक्ति, टीकाएं लिखी जा चुकी थीं। यह संपूर्ण व्याख्या-साहित्य जैन आगम साहित्य का पूरक ही है । [ 7 ]
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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