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रोगों और उनकी अनुभूत चिकित्सा का भी वर्णन किया गया हैं । . लिए बहुत उपयोगी है ।
अत: चिकित्सक के
पाकाधिकार में वाजीकरण हेतु 'कलानिधि -
यूनानी वैद्यक के द्रव्यों और औषधयोगों का भी उपयोग है लघु और बड़ी जवाहरी (याकूती ) का प्रयोग द्रष्टव्य है । वटी' (केशर, शु. हिंगुल, जायफल, कस्तूरी, अफीम, भांग, आकरकरा का योग ) विशेष है। ग्रंथांत में ज्योतिषशास्त्रानुसार औषध देने के योग, वारयोग और रोग के बाद स्नान करने के योग बताये है
औषध देने के योग - रेवती, अश्विनी, पुष्य, पुनर्वसु, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, मूला, शतभिषा, स्वाती, श्रवण और धनिष्ठा - इन नक्षत्र - योगों में औषध देनी चाहिए ।
वारयोग - रविवार, शनिवार, मंगलवार को औषध देनी चाहिए । इससे शीघ्र लाभ होता है ।
रोग के बाद स्नान - रोहिणी, स्वाती, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपदा और उत्तराफाल्गुनी - इन नक्षत्रों को छोड़कर पुनर्वसु, रेवती तथा मघा नक्षत्रों में, इसी प्रकार रिक्ता तिथि, चर लग्न, मंगलवार और रविवार के दिन रोगी को स्थान कराना चाहिए ।
चैनसुख यति ( 1763 ई.)
यह श्वेतांबर साधु थे । यह खरतरगच्छ में जिनदत्तसूरि शाखा में लाभनिधान के शिष्य थे |2 इनका निवासस्थान फतेहपुर ( शेखावाटी ) थां । इनके शिष्य चिमनीराम ने वहां सं. 1868 में इनकी छतरी ( समाधि ) बनाई थी । फतहपुर इनकी परंपरा
के यति आज भी विद्यमान हैं । ये अच्छे चिकित्सक थे ।
इनके वैद्यक पर राजस्थानी में लिखे दो ग्रन्थ मिलते हैं
1. सतश्लोकी भाषाटीका
2.
वैद्यजीवन-टवा
ये दोनों ग्रन्थ भाषाटीकाएं हैं ।
1 इनकी गुरु-शिष्य परम्परा इस प्रकार है- वाचक शीलचन्द्रग रिण - वाचक रत्नमूर्ति-गरण - मेरुसुन्दर उपाध्याय - क्षांतिमंदिर - हर्षप्रियगरिण - वाचक हर्षोदयगरणहर्षसार (सम्राट अकबर के समकालीन ) – शिवनिधान उपाध्याय - वा. मतिसिंह - रत्नजय - भाग्यवर्द्धन - लाभसमुद्र - लाभोदय ( सं. 1762 ) - लाभनिधान - चैनसुख - चिमनीराम । ( अगरचन्द नाहटा, भंवरलाल नाहहा, युगप्रधान श्री जिनदत्तसूरि, पृ.69-73)।
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