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ग्रन्थारम्भ में लिखा है
'नव कोटि में मुकुट मन, 'बीकानेर' शुभ थान । राज करै राजा तहां, नृप मन नृपति 'सुजान' ।।3।। जांक कुवर प्रसिद्ध जग, सब गुण जांन अनूप । 'जोरावरसिंह' नाम जिह, राज सभा को रूप ।।4।। “तिन महाराज कुवार की, उपज लखी कविराय ।
अपने मन उछाह सौं, भाषा करी बनाय ।।11।। ग्रंथ के अन्त में भी लिखा है
'जिन महाराज सुजांन के, 'जोरौं' कुवर सुजान । कलि में दाता कर्ण सो, सूरज तेज बखांन ।। 79।। जिनके नामै ग्रन्थ यहु, कर्यो 'दास कवि' जान ।
राजकुवर की रीझ को, अब कवि कर बखान ।।8011 अन्तिम पुष्पिका में लिखा है -
'इति श्रीमन्महाराज कुवार जोरावरसिंह विरचितायां वैद्यकसारे ।'
ग्रन्थांत में इसका रचनाकाल सं. 1762 अश्विन शुक्ला 10, तथा रचनास्थान बीकानेर दिया है-'नयन2 खंड6 सागर7 अवनि |, ऊजल आश्विन मास ।
दसम धौंस 'कविदास' कहि, पूरन भयो प्रकास ।।' इसमें रोगों की चिकित्सा दी गई है। इसकी हस्तप्रति अनुप संस्कृत लाईब्रेरी बीकानेर में हैं। इसमें सात अध्याय है ।
समरथ (1707 ई.) यह श्वेतांबर जैन यति थे। खरतरगच्छ की सागरचंद्रसूरि शाखा के मतिरत्न या 'सुमतिरत्न' के शिष्य थे। 'रसिकप्रिया टोका' के अन्त में इन्होंने संस्कृत पद्यों (लगभग 20) में अपनी गुरु-परम्पग का उल्लेख किया है । खरतरगच्छ में जिनचंद्रसूरि प्रसिद्ध आचार्य हुए। उसी परम्परा में सागरचंद्रसूरि हुए। इनसे नयी शाखा प्रवर्तित हुई। इनके शिष्य सुधर्मरत्न-उनके शिष्य मुनि रत्नधीर-उनके शिष्य गुणनंदनार थ-उनके शिष्य समयमूर्ति - उनके दो शिष्य ने महर्ष और मति रत्न हुए । इनमें से मतिरत्न के शिष्य समरथ हुए ।
दीक्षितावस्था का इनका नाम 'समयमाणिक्य' था । यह बीकानेर के निवासी थे। इनके अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। केशवदास की ब्रजभाषा में विरचित 'रसिकप्रिया' पर संस्कृत में टीका (र. का. सं. 1755, श्रावण सुदि 5, सोमवार । जालिपुर), 1 'बावनी
1 देखें-राज. हस्त. ग्रन्थों की खोज, भाग 2, पृ. 137-140
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