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इनकी दो वैद्यक कृतियां मिलती हैं - 'कालज्ञान' और 'मूत्रपरीक्षा' । ये दोनों राजस्थानी में पद्यबद्ध रचनाएं हैं ।
(1) कालज्ञान भाषा
यह शंभुनाथकृत संस्कृत के 'कालज्ञानम्' का पद्यबद्ध भाषानुवाद है । अतः भाषा-बंध में लक्ष्मीवल्लभ ने भी ग्रन्थ के प्रारम्भ में शक्ति, शिव और गणेश की वंदना की है
' सकति शंभु शंभू - सुतन, धरि तीनों का ध्यान । सुंदर भाषा बंध कर, करिहुं काल ग्यांन ॥1
भाषित 'शंभुनाथ' को, जानत काल ग्यान ।
जाने आउछ मास थे, धुर तें वैद्य सुजान 12
प्रारम्भिक पद्यों में ही लेखक ने अपनी गुरु-शिष्य - परम्परा का भी उल्लेख किया है—
' श्री 'जिनकुशलसूरीस' गुरु, भए खरतर प्रभु मुख्य । 'खेमकीर्ति' वाचक भए, तासु परंपर शिष्य ।। 71 | ता साखा में दीपते, भए अधिक परसिद्ध |
श्री 'लक्ष्मीकीर्ति' तिहां, उपाध्याय बहु बुद्धि 1172 || श्री 'लक्ष्मीवल्लभ' भए, पाठक ताके शिष्य ।
कालग्यान भाषा रच्यो, प्रगट अरथ परतक्ष 1173 1
इसका रचनाकाल सं. 1741 (1684 ई ) श्रावण शुक्ला 15 गुरुवार दिया है'चन्द्र 1 वेद4 मुनि 7 भू 1 प्रमित, संवत्सर नभ मास । पूनम दिन गुरुवार युत, सिद्धयोग सुविलास 170
पुष्पिका में लिखा है - ' इति कालग्याने ||5|| ' इसमें कुल 178 पद्य हैं । भाषा सरस और सरल है ।
इसमें पांच समुद्देश (अध्याय ) हैं । भाषाप्रबन्धे श्री लक्ष्मीवल्लभविरचिते पंचम समुद्दे यह दोहे, चौपाई, सोरठ छंदों में लिखा गया है ।
लेखक ने वैद्यक-विद्या की प्रशस्ति निम्न पद्यों में लिखी है -
'जग वैद्यक विद्या जिसी, नहीं न विद्या और ।
फलदायक परतखि प्रगट, सब विद्या को मौर 11166 1 रोग निवारण यह करें, करें धर्म की वृद्धि |
धन की भी प्राप्ति करइ, दुहु लोक में द्वय सिद्धि 11671 वैद्य कहुं धर्म हुइ, कहुं हुइ धन को लोभ ।
कहुं कारिज कहुं होइ जस, कहुं प्रीति की शोभ ।।168 ।
वैद्यकतें हुई चतुर पण, बड़ी ठौर सम्मान |
प्रसिद्ध होइ सब देश में,
आन न ऐसे ज्ञान ||1691
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