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________________ वैद्यक पर जिनसमुद्रसूरि की एक ही कृति मिलती है - 'वैद्यकचिंतामणि' । वैद्यकचितामरिण ग्रंथारम्भ में गुरु और भारती को नमस्कार किया गया है। ग्रन्थ के अन्य नाम 'वैद्यकसारोद्धार और 'समुद्रसिद्धांत' या 'समुद्रप्रकाशसिद्धांत' भी दिये गये हैं। यह एक संग्रहग्रन्थ है ! अनेक वैद्यक ग्रन्थों का मन्थन कर यतियों के उपकार हेतु इस ग्रन्थ की भाषा में रचना की गयी है। ग्रन्थकार ने चरक, सुश्रुत, वाग्भट, शाङ्गधर, आत्रेय, योगशतक आदि ग्रंथों का अवलोकन व अध्ययन किया था। 'यति उपकार तणी ग्दैि, घरी आण चित्त चूप । र चौं वैद्य के काज कों, वैद्यक ग्रन्थ अनूप ।।6।। वैद्य ग्रन्थ पहिली बहुत हे पिण संस्कृत वाणि । तात इं मुगध प्रबोध उं, भाषा ग्रन्थ बखांणि ।।7।। 'वाग्भट सुश्रत चरक'. फुनि 'सारंधर' आत्रेय । 'योगशतक' आदिक वली, वैद्यक ग्रंथ अमेय ।।8।। तिन सविहुन को मथन करि, दधि तें ज्यु घृतसार । ज्यों रचिह' सम शास्त्र तें, 'वैद्यकसारोद्धार' ।9।। परिपाटी सवि वैद्यकी, आमनाय सशुद्धि । 'वैद्यचिंतामणि चोपई, रचहूं शास्त्र की बुद्धि ।।10॥ रोगनिदान चिकिच्छका, पद्य क्रियादिक तंत । नाम धरयो इन ग्रन्थ को, 'श्रीसमुद्रसिद्धत ।।11।। इसमें रोगों के निदान, लक्षण और चिकित्सा का विवरण है। ग्रन्थ चोपई छंद में लिखा गया है। सर्वप्रथम तीन प्रकार के देशों का वर्णन किया गया है। इसकी हस्तलिखित प्रति जैसलमेर के बड़े भंडार में सुरक्षित है। यह प्रति अपूर्ण है। मध्य में अध्यायांत पुष्पिका इस प्रकार मिलती है "इति श्री ‘समुद्रप्रकास सिद्धान्ते विद्या विलास चतुष्य दिकायां वर्षा रि. समाप्तमिति ।" ग्रंथ कण्ठरोग, तालुरोग, कपालव्यथा आदि के वर्णन के साथ समाप्त हो जाता है। ग्रन्थ के प्रारम्भ में पार्श्वनाथ की वंदना है 'श्रीगोडी फलवद्धिपुर', आदिक तीरथ जास । 'पार्श्वप्रभू' पृथिवी प्रसिद्ध, पूरण वांछित आस ।।2।। इनके गुरु जिनचन्द्रसूरि के गुरु जिनेश्वरसूरि का उल्लेख भी मिलता है 'सगुरु "जिनेश्वरसूरि' पद नायक 'जिणचंदसूरि'। ताके चरण कमल नमू, धर चित्त आणंद पूरि ।। 5 ।। (प्रारम्भ) [ 132 )
SR No.022687
Book TitleJain Aayurved Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendraprakash Bhatnagar
PublisherSurya Prakashan Samsthan
Publication Year1984
Total Pages196
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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