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"गुरुविण माई प्रसन्न न होई, गुरुविण ज्ञान न पामई कोई । गुरु प्रसादि सर्व सिद्धि मिलई, अलीय विधन सवि दूरि टलि ।। 57।।
हंसराजमुनि' (17वीं शती पूर्वार्ध) यह खरतरगच्छीय वर्द्धमानसूरि के शिष्य थे। इनका काल 17वीं शती पूर्वार्थ ज्ञात होता है।
इन्होंने नेमिचन्द्र कृत प्राकृत के 'द्रध्यसंग्रह' पर 'चालावबोध' लिखा था । कविप्रदत्त प्रशस्ति इस प्रकार है -
'द्रव्यसंग्रहशास्त्रस्य 'बालबोधो' यथामतिः । 'हंसराजेन मुनिसा' परोपकृतये कृतः ।। 111
इनकी अन्य रचना 'ज्ञान द्विपंचाशिका-ज्ञानबावनी' भी मिलती है। इसका उल्लेख मो.द. देसाई ने 'जैनगुर्जर कविओ' भाग 3 खंड 1, पृ. 806 पर किया है। इसका ‘लिपिकाल' सं. 1709 (1652 ई.) है।
__ 'भिषक्चऋचित्तोत्सव'- इसे 'हंसराजनिदानम् भी कहते हैं। यह आयुर्वेदीय निदान पर बहुत उत्तम ग्रन्थ है । इसका वैद्य-परम्पराओं में विशेष कर जैन यति-परम्परा में बहुत व्यवहार होता रहा है।
___ इसकी कुछ हस्तलिखित प्रतियों में अन्थारंभ में 'श्री पार्श्वनाथाय नमः' लिखकर सरस्वती, उमा और धन्वन्तरि को नमस्कार किया है।
___ इस प्रन्थ का नाम 'भिषक्चक्र चत्तोत्सव' दिया है, परन्तु इसे लेखक ने अपने नाम से संबद्ध भी बताया है
'भिषक्चक्रचित्तोत्सवं' जाड्यनाशं करिष्याम्यहं बालबोधाय शास्त्रन् । नमस्कृत्य 'धन्वन्तरि' वैद्यराजं जगद्रोगविध्वंसनं स्वेन नाम्ना ।।5।।'
इसके अतिरिक्त, ब्रह्मा, शिव, विष्णु, शुक्र, भारद्वाज, गौतम हारीत, चरक, अत्रि, वृहस्पति, धन्वन्तरि, माधव, अश्विनी कुमार, नकुल, पाराशर मुनि, दामोदर, वाग्भट और
। एक अन्य हंसराज तपागच्छीय हीरविजयसूरि के शिष्य थे इनका 'वर्धमानजिनस्तवन'
100 पद्य, सं. 1652 के पूर्व का लिखा मिलता है। इसमें अपना परिचय इस प्रकार दिया है - 'तपगच्छ ठाकुर गुण विरागर, 'हीरविजय' सूरीश्वर, 'हंसराज वंदे मन पारणंदे, कहे धनमुख एह गुरु ।।' इनका अन्य ग्रन्थ 'हीरविजयसूरि लाभ प्रवहण सज्वाम' है [देसाई, जैन गु. क., भाग 3, खड 1, पृ, 805] ।
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