SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 65
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५६ बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन वाणिज्य और व्यापार __ जैन धर्म को मानने वाले ज्यादातर लोग व्यापारी थे और आज भी हैं, इसलिए प्रस्तुत ग्रन्थ में एतद्विषयक विपुल सामग्री प्राप्त होती है। ये प्रसंग श्रमणश्रमणियों के संदर्भ में आये हैं जो वर्षावास के बाद आठ महीने धर्मयात्रा करते हैं। धर्मयात्रा के दौरान उनका संपर्क अनेक व्यापारिक संगठनों, सार्थवाहों, निगमों आदि से होता था, अतः भाष्यकार ने इनकी विस्तृत चर्चा की है। 'बृहत्कल्पभाष्य' में व्यापारियों यानि सार्थों की वस्तियों को निवेश कहा गया है।८ उधार-पुरजे देने वाले व्यापारियों की बस्ती को 'निगम' कहा जाता था।४९ निगम दो प्रकार के होते थे- सांग्रहिक और असांग्रहिक। सांग्रहिक निगम में समान गिरवी रखने और ऋण देने का काम होता था और असांग्रहिक निगम में ऋण देने के अतिरिक्त अन्य व्यापारिक काम भी होते थे।५° जलपट्टन तो समुद्री बन्दरगाह होता था जहाँ विदेशी माल उतारा और देशी माल लादा जाता था जब कि स्थलपट्टन उन बाजारों को कहते थे जहाँ बैलगाडियों आदि से माल उतरता था।५१ आनन्दपुर और दसण्णपुर स्थलपट्टन के दो उदाहरण गिनाये गये हैं।५२ निशीथचूर्णि में पुरिमा और दिव को जलपट्टन कहा गया है।५३ द्रोणमुख उन बाजारों को कहते थे जहाँ जल और थल दोनों मार्गों से माल उतरता था।५४ भृगुकच्छ और ताम्रलिप्ति इसी प्रकार के दो नगर थे।५५ पुटभेदन ऐसे बाजार थे जहाँ चारों ओर से माल आते थे। शाकल इसी तरह का पुटभेदन था।५६ जहाँ वस्तुओं का क्रय-विक्रय होता था उन्हें 'अन्तरापण' कहा जाता था।५७ इस प्रकार की दुकानों को 'आपणगृह' कहा जाता था।५८ सार्थवाह जो बाहरी मंडियों के साथ व्यापार करने के लिए एक साथ टाँडा लादकर चलते थे वे 'सार्थ' कहलाते थे और उनका नेता ज्येष्ठ व्यापारी सार्थवाह कहलाता था।५९ किसी-किसी सार्थ में दो सार्थवाह होते थे ऐसी स्थिति में व्यापारियों को दोनों सार्थवाहों की आज्ञा मानना पड़ती थी।६० सार्थों में बालक, वृद्ध, दुर्बल, रोगी आदि की भी सवारी होती थी।६१ 'बृहत्कल्पभाष्य' से पता चलता है कि जो सार्थ धन देने पर भी सवारी को सुविधा प्रदान नहीं करता था वह अच्छा नहीं माना जाता था।६२ कभी-कभी सार्थ घने जंगलों में दिग्भ्रमित हो जाते थे। ऐसे समय में 'वनदेवता' का आह्वान करके उनसे मार्ग पूछा जाता था।६३ कभीकभी मार्ग की कठिनाई के कारण एक-दूसरे की सहायता के उद्देश्य से दो सार्थवाह मिलकर साथ में चलते थे।६४
SR No.022680
Book TitleBruhat Kalpsutra Bhashya Ek Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahendrapratap Sinh
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year2009
Total Pages146
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy