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बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
रोग आदि से आक्रान्त हो तो यह नियम लागू नहीं होता। चोरपल्लि अथवा शून्य ग्राम में से होकर जाते हुए साधु के लिए मत्स्य मांस का विधान किया गया है। बेइंदियमाईणं, संथरणे चउलहू उ सविसेसा 1
ते चेव असंथरणे, विविरीय सभाव साहारे || ७४
सामान्यतया जैन भिक्षुओं के लिए मद्य, मांस का निषेध ही बताया गया है । कतिपय देशों में मत्स्य और मांस भक्षण का रिवाज था । उदाहरण के लिए सिंधु देश में लोग मांस से निर्वाह करते थे, तथा आमिष - भोजी वहाँ बुरे नहीं समझे जाते थे। ७५ सूर्यप्रज्ञप्ति (५१, पृ. १५१ ) में उल्लेख है कि अमुक नक्षत्र में चासय, मृग, चीता, मेंढक, नखवाले जन्तु, वराह, तीतर का मांस भक्षण करने से सिद्धि प्राप्त होती है।
रीति-रिवाज
आदिकाल से ही जादू-टोना और अंध-विश्वास प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन में महत्त्वपूर्ण रहे हैं। कितने ही मंत्र, मोहनी, विद्या, जादू, टोटका आदि का उल्लेख 'बृहत्कल्पभाष्य' में मिलता है जिनके प्रयोग से रोगी चंगे हो जाते, भूत-प्रेत भाग जाते, शत्रु हथियार डाल देते, युद्ध में विजयलक्ष्मी प्राप्त होती और गुप्त धन मिल जाता था। आचार्य भद्रबाहु एक महान् नैमित्तिक माने गये हैं जो मंत्रविद्या में कुशल थे। मंत्रपाठ द्वारा कुल देवता के उपद्रव को भी शान्त किया जाता था। ७६ मंत्रविद्या की सहायता से अश्व उत्पादन करने का उल्लेख भी मिलता है। ७७
यदि कभी कोई प्रत्यनीक सार्थवाह साधुओं के गच्छ को निकाल देता, या उनका भक्त-पान बन्द कर देता, तो अभिचारु विद्या पढ़कर उसे लौटाया जाता था। ७९ इसी प्रकार वसति में रहते हुए यदि जल, अग्नि अथवा आँधी का उपद्रव होता तो स्तंभिनी विद्या का प्रयोग किया जाता था ।
उदगा-ऽगणि-वायाइसु, अन्नस्सऽसतीइ थंभणुछवणे ।
संकामियम्मि भयणा, उट्ठण थंडिल्ल उन्नत्थ ॥
यदि सर्प आदि कोई विषैला जन्तु वसति में घुस जाता तो अपद्रावण (उद्दवण) विद्या द्वारा उसे अन्यत्र पहुँचाया जाता था। १ स्तंभिनी और मोहनी विद्याओं द्वारा चोरों का स्तंभन और मोहन किया जाता । ८२ आभोगिनी विद्या जपने पर दूसरे के मन की बात का पता लग जाता, तथा प्रश्न, देवता और निमित्त द्वारा चोरों का पता लगाया जाता था। ८३