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. बृहत्कल्पसूत्रभाष्य : एक सांस्कृतिक अध्ययन
कुछ वर्षों पूर्व तक केवल मूल ही प्रकाशित था। लेकिन पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी द्वारा 'जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-३ (१९८९) एवं जैन विश्वभारती, लाडनू से मुनि दुलहराज द्वारा अनुदित (हिन्दी अनुवाद) एवं सम्पादित संस्करण (२००७)के प्रकाशित हो जाने से ग्रंथ में प्रवेश आसान हो गया है।
प्रस्तुत अध्ययन से पूर्व कुछ विद्वानों ने इस ग्रन्थ का अपने-अपने संदर्भ में उपयोग अवश्य किया है। इनमें सबसे प्रमुख डॉ. मोतीचन्द हैं जिन्होंने अपने ग्रन्थ 'सार्थवाह' में बृहत्कल्पभाष्य में वर्णित सार्थ एवं सार्थवाह से संबंधित सामग्री का भरपूर उपयोग किया है। तदुपरान्त डॉ. मधुसेन ने अपनी पुस्तक 'ए कल्चरल स्टडी आफ दी निशीथचूर्णि' में प्रसंगवश कुछ संदर्भ प्रस्तुत की हैं। परन्तु दुर्भाग्य से इतने विशाल और बहुविध सामग्री से युक्त इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ का संपूर्ण सांस्कृतिक अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। प्रस्तुत अध्ययन में मैंने इस महत्त्वपूर्ण जैन ग्रन्थ में निहित संपूर्ण सांस्कृतिक सामग्री को एक जगह एकत्र किया है और उसका समुचित विवेचन कर तत्कालीन परिप्रेक्ष्य में आकलन करने का प्रयास किया है।
सन्दर्भ १. मोहनलाल मेहता, जैन धर्म-दर्शन, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान, वाराणसी,
१९७३, पृ. २१। २. हीलालाल जैन, भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान, भोपाल, १९७५, पृ.
३५-३६ ३. मोहनलाल मेहता, जैन धर्म-दर्शन, पृ.१६ ४. ए.एम. घाटगे, द क्लास्किल ऐज, सम्पादक, आर.सी. मजुमदार, बम्बई, १९७०,
पृ. ४१५ ५. जगदीशचन्द्र जैन व मोहनलाल मेहता, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-२,
पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध-संस्थान, वाराणसी, १९६६, पृ. २५३ ६. मोहनलाल मेहता, जैन साहित्य का बृहद् इतिहास, भाग-३, वाराणसी, १९८९,
पृ. ६-७ ७. बृहत्कल्पसूत्र भाष्य, सम्पादक, आगम मनीषी मुनि दुलहराज, जैन विश्वभारती,
लाडनू, २००७, गाथा २०४७-२१०५ ८. बृहत्कल्पसूत्र भाष्य, प्रस्तावना, पृ. २०