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________________ (६५) यौवन में आए, परस्पर अत्यंत स्नेहवाले उन दोनों में एक दिन एकांत में बातचीत हुई, प्रभंजन ने कहा कि तेरी प्रथम संतान मेरे प्रथम पुत्र को देना, उन दोनों का परस्पर संबंध हम बड़े उत्साह से कराएँगे। भाई के ऊपर अत्यंत स्नेह होने से बंधुसुंदरी ने सहर्ष स्वीकार कर लिया। __इधर वैताढ्य की उत्तर श्रेणी में सब ऋतुओं में फलनेफूलनेवाले वृक्षों से सुशोभित चमरचंचा नाम का एक नगर है, उस नगर में कामदेव से भी सुंदर कामिनियों के मन को आनंद देनेवाले अत्यंत बलशाली भानुगति नामक विद्याधरराज हैं, विद्याधरेन्द्र हरिश्चंद्र ने अपनी पुत्री बंधुसुंदरी भानुगति को दी, और भानुगति ने बड़े प्रेम से उसके साथ विवाह किया । उस सुंदरी के साथ भानुगति पाँचों विषयों का अनुभव करते हुए राज्य करते हैं, कुछ दिनों के बाद देवी बंधुसुंदरी को एक कन्या हुई । जो अपने रूप से दिशाओं को प्रकाशित करती थी। उसका नाम 'चित्रलेखा' रक्खा गया, उसके बाद देवी ने सुंदर स्वप्नों से सूचित पुत्र को शुभतिथि नक्षत्र में जन्म दिया, जिसका नाम रक्खा गया चित्रगति । इधर हरिश्चंद राजा सुमुखनामक चारण श्रमण के पास सिद्धि सुखदायी जिन धर्म को सुनकर अपने पद पर प्रभंजन को स्थापित कर के दीक्षा लेकर उन्हीं चारण श्रमण के आश्रय में श्रामण्य का विधिपूर्वक पालन कर के कर्म-समूह का विनाश कर अंतकृत केवली हुए, प्रतापी विद्याधरराज प्रभंजन निःशंकभाव से पिता से प्राप्त राज्य को भोगते हैं, सकल अंतःपुर में प्रधान उत्तमकुल में उत्पन्न कलहँसी और मंजूषा दो रानियाँ थीं, कलहँसी को ज्वलनप्रभ नाम का पुत्र हुआ और मंजूषा को
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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