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________________ (६१) चली गई देवता-वचन की आशा से कुछ उपाय भी नहीं किया, अब अभी मैं कुछ कर भी नहीं सकता हूँ, यह अनुराग यों ही टूटनेवाला नहीं है, विरहजनित संताप प्रत्येक क्षण में बढ़ता है। दुर्लभजन में जिसका अनुराग होता है वह पल्वल के जल की तरह अवश्य सूखता रहता है । प्रिया संगम की आशा टूटने पर अब मैं अपने मन को कैसे व्यवस्थित रक्खू ? केवल प्राणत्याग से ही विरह दुख: की शांति हो सकती है। यद्यपि विवेकी उत्तमपुरुष के लिए प्राणत्याग उचित नहीं फिर भी उसके विरह में मैं जी नहीं सकता। अतः उसकी दोला से पवित्र इस वृक्ष पर चढ़कर फाँसी लगाकर मैं प्राणत्याग कर लेता हूँ, यह सोचकर उस वृक्ष पर चढ़ा और गले में पाश लगाकर मैं बोला कि रे दैव ? तुझ से यही प्रार्थना है कि अन्य जन्म में अप्राप्यजन में स्नेह नहीं करना, रे दैव ? केवली का वचन, देवता की वाणी, वह स्वप्न, तूने सब को असत्य बनाया, यह कहकर ज्यों ही मैं नीचे को गिरा, इतने में किसी ने चिल्लाकर मुझ से कहा कि भद्र ! यह अनुचित साहस मत करो, यह तो कायरों का काम है, इतने में किसी ने आकर लटकते हुए मेरे शरीर को ऊपर उठाकर पाश काटकर शीतल पवन का उपचार किया, शीतल जल, से सींचकर संपूर्ण शरीर का मालिश मर्दन किया, मूर्छा टूटने पर कोमल पल्लव की शय्या पर मुझे सुलाया। इस प्रकार अनेक उपचार से होश में आने पर सामने एक विशिष्ट आकृतिवाले नवयौवन साक्षात् कामदेव के समान सुंदर पुरुष को देखा । उसने
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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