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________________ (४१) मण्डित अत्यंत रमणीय दर्शन मात्र से काम उत्पन्न करनेवाले उस मकरंदोद्यान में जब पहुँचे तो रतिसहित मदनपूजा के लिए नगर के लोगों से भरे ऊँचे प्राकारवाले मदन मंदिर को देखा, जहाँ मृदंग बज रहे थे । कामिनियों के गीत से कामुकजन आकृष्ट हों रहे थे, अपनी प्रियतमा के साथ कामी लोग कदली वन में कोड़ा कर रहे थे, बालिकाएँ दोला पर चढ़ी थीं, कुछ लोग जलक्रीड़ा में व्यस्त थे, एक-दूसरे के ऊपर पानी कीचड़ उछालते थे, मंदिर में प्रवेश कर रति युक्त मदन का दर्शन कर के हम दोनों बाहर की वेदी में बैठे, कुमार ? इतने में मैंने सखियों के बीच में विराजमान पास के वृक्ष में दोलारोहण करती हुई नवीन यौवत में प्रविष्ट अपूर्व सौंदर्यवाली एक युवती को देखा, पीन उन्नत धन स्तनों पर उछलती हुई हारावली से वह शोभायमान थी, तपाए गए सोने के समान उसका वर्ण था । वणिकुण्डल से उसके कपोल मण्डित थे, विधाता ने उसे अमृतमयी बनाया था। वह लोगों के लोचन को आनंद देनेवाली थी, उसको देखकर मैंने सोचा कि यह मनोहर स्वरूपवाली कौन है ? क्या यह नागकन्या है ? क्या वनलक्ष्मी है ? या देवलोक से च्युत कोई देवांगना है ? क्या मनवियुक्त शरीरधारिणी रति है ? इस प्रकार विकल्प करता हुआ मैं उसे देख रहा था, वह भी स्नेहपूर्वक मुझे देखने लगी, मैंने भानुवेग से पूछा, यह कौन है, किसकी स्त्री है ? कुछ हँसते हुए भानुवेग ने कहा कि इसकी बात करने से कोई लाभ नहीं, चलें, यह भी अत्यंत वक्र दृष्टि से आपकी ओर देखती है, ऐसी स्त्री को दृष्टि पड़ने से शरीर अस्वस्थ हो जाता है, ऐसी स्त्री कृष्टिपात से ही मन को भी हर लेती है, मैंने कहा कि यह केवल परिहास है और आप तो कुछ दूसरा ही सोचते हैं, इस पर
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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