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________________ (३९) भवन के द्वार पर रहे हुए मालियों से अनेक प्रकार के फूलों को लेकर विधिपूर्वक अंदर में प्रविष्ट हुआ। जिन बिम्बों की पूजा कर के चैत्यवंदन कर के बाहर निकलकर विद्याधरों के बीच में बैठ गया। कुछ देर के बाद मित्रों के साथ कहीं विलासिनी स्त्रियों का नाच देखता था, कहीं कवियों के द्वारा वर्णित जिनेश्वर के चरित्र को सुनता था, कहीं वीणा की मधुर ध्वनि को सुनता था, कहीं अनेक प्रकार के दिए जाते हुए उपहार को देखता था । इतने में मातुल पुत्र भानुवेग मेरे पास आया और स्वागत कर के कहा कि बहुत दिनों के बाद आप देखने में आए। आपके पिताजी और मेरी फुई बकुलावली ये सब सकुशल तो हैं न ? तब मैंने कहा कि सब का कुशल है और वे सब भी यहाँ आए हैं। मैं उनके साथ ही आया हूँ, फिर उसके साथ मैं माता-पिता के पास गया । उन्होंने आदरपूर्वक उसका आलिंगन किया, कुशल पूछा, उसने कहा कि किसी विशेष कारण से उनका (मेरे माता-पिता) का आगमन नहीं हुआ। उसके बाद मैंने उससे कहा कि जिन-यात्रा समाप्त होने जा रही है, अतः आप आइए और हमारे मेहमान बनें, उसने कहा, बात ठीक है किंतु मेरे पिता चित्रभानु ने मुझे शीघ्र आने के लिए कहा है, अतः अभी आप मेरे नगर को ही चलें क्यों कि आपके मामाजी भी आपको देखने के लिए बड़े उत्कण्ठित हैं, उसके ऐसा कहने पर माता-पिताजी से आज्ञालेकर उसके साथ मैं कुंजरावर्त पहुंचा, चित्रभानु मुझे देखकर अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा कि बहुत अच्छा हुआ जो तुम हमारे पाहुन हुए। उनसे अपनी सारी प्रवृतियों बतलाईं, उसके बाद भोजनादि से निवृत्त होकर रात में सुंदर शय्या पर सो गया। वहाँ प्रातः काल में जब कुक्कुट आदि पक्षी बोल रहे थे, मैंने एक अपूर्व स्वप्न देखा वह स्वप्नयह था कि “सफेद
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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