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________________ (१४) अपना दुःख कहने से क्या लाभ ? तथापि सुंदर ? आपका वचन निष्फल न जाए इस से कहता हूँ, आप सुनें सिंहगुफा नाम की एक पल्ली है, 'सुप्रतिष्ठ' उसके स्वामी है- उनकी भार्या का नाम लक्ष्मी है, लोगों के चित्त को आनंदित करनेवाला “जयसेन" नाम का उनका एक पुत्र है, मैं उस बालक का संरक्षक हूँ, मेरा नाम देवशर्मा है, अनेक प्रकार की क्रीड़ाओं से मैं उस बालक को खेलाता था, एक दिन बालक को लेकर मैं बाहर निकला । योगिवेश में रहे दो पुरुषों ने मुझे देखा, देखते ही मीठी मीठी बातें करके उन्होंने मुझे एक पान दिया, पान खाते मेरी बुद्धि मारी गई। उसके बाद कुमार के साथ मैं उनके पीछे-पीछे चलने लगा, मुझे कुछ ज्ञान ही नहीं रहा, कुछ दूर जाने पर जब मुझे प्यास लगी तो एक लता मण्डप में गया, वहाँ अनेक प्रकार के वृक्षों के फल-फूलों से कलुषित पानी पिया और उस जल के प्रभाव से स्वस्थ होकर सोचने लगा कि रात में कुमार को लेकर मैं भाग जाऊँगा यह सोचकर उनसे अलक्षित ही रहकर मैं उनके साथ चला, रात में उन पापियों को आपस में बात करते सुना कि इस बालक से यक्षिणी सिद्ध हो जाएगी, तुंगिक नामक पर्वत पर जाकर इस बालक का होम करके यक्षिणी की साधना संपूर्ण होने पर हम निधि को प्राप्त करेंगे, उनकी बात सुनकर मैं भयभीत हो गया और उनके सो जाने पर जयसेन को लेकर मैं वहाँ से भागा, ढूंढते-ढूंढते उन्होंने भागते हुए मुझे पकड़ लिया, फिर मुझको बाँधकर बैल पर चढ़ाकर यहाँ ले आए। आज मैं सात दिन से यहाँ हूँ, मुझ भूखे प्यासे को उन्होंने इस उद्यान में छोड़ दिया है भद्र ? यही मेरे शोक का कारण है, तब धनदेव ने पूछा कि वे कहाँ हैं ? देवशर्मा ने कहा, एक तो कुमार को लेकर उस बटवृक्ष के नीचे बैठा है और दूसरा
SR No.022679
Book TitleSursundari Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanuchandravijay
PublisherYashendu Prakashan
Publication Year1970
Total Pages238
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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